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भगवान महावीर के जन्म से लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व जैनो के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ हुए थे और भगवान महावीर के समय में भी उनके द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म प्रचलित था ।
भगवान महावीर के समय मे श्रमण विचारधारा के पोषक कई प्रसिद्ध साधु थे, जिनमें निम्नलिखित पांच मुख्य थे, (१) पूर्ण काश्यप, (२) मस्करि गोशालि पुत्र ( मखलि गोशाल), (३) सजय वेलट्ठि पुत्त, (४) अजित केश कम्बलि, (५) प्रकृध कात्यायन । यद्यपि उस समय कुछ व्यक्ति उन साधुओ के अनुयायी भी थे, पर जन साधारण पर अधिकाश मे ब्राह्मणो का ही प्रभाव था । ब्राह्मण यज्ञ करते थे, जिनमे पशुओ की व कभी-कभी मनुष्यों तक की बलि दी जाती थी और उनका मास खाया जाता था। मांसाहार का आम रिवाज था । स्त्रियो और विशेषकर शूद्रो की सामाजिक दशा बहुत खराब थी । उनको किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नही थे। उनको पग-पग पर अपमानित और पददलित किया जाता था। तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर के समय में यहाँ पर हिंसा का जोर था और जनसाधारण धार्मिक अन्धविश्वास व बौद्धिक दासता से पूर्णतया ग्रस्त था ।
महात्मा बुद्ध को भी, जो भगवान महावीर के समकालीन थे, उस समय फैली हुई हिंसा से बहुत दुख हुआ था। उन्होंने भी ससार के कष्टों से छुटकारा पाने का मार्ग खोजने के लिए गृह त्याग किया था। अपने साधना काल में उन्होंने कुछ समय के लिए जैन मुनि की दीक्षा भी ली थी। परन्तु जैन मुनि की कठिन चर्य्या का पालन न कर सकने के कारण उन्होंने दिगम्बर वेश त्याग कर वस्त्र
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