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जननी है और अहिंसा सब सुखो का स्रोत है। उन्होने कहा कि वस्तुत इस ससार मे अहिसा ही परम धर्म है । इसके अतिरिक्त जो भी यम नियम आदि बतलाये गये हैं वे सब अहिंसा को दृढ करने के लिये ही हैं ।
अपरिग्रह भगवान महावीर ने बतलाया कि अहिंसा का पालन करना तो धर्म है ही, परन्तु जो प्राणी अपने पूर्व उपार्जित पापो के फलस्वरूप कष्ट पा रहे हैं, उनके कष्टो को दूर करना और उनको कम करने के प्रयत्न करना भी धर्म है । दूसरो के कष्टो को दूर करने के लिये हमको कुछ त्याग करना पडता है, अपने समय का त्याग, अपने धन का त्याग व अपने सुख का त्याग । जैसे किसी रोगी व्यक्ति की सेवा करना, उसको अपने धन से दवा दिलाना, इसी प्रकार कोई व्यक्ति भूख से व्याकुल हो उसको भोजन खिलाना, कोई व्यक्ति किसी कारण से भयभीत हो रहा हो उसकी सुरक्षा का प्रबन्ध करना, कोई अनपढ हो तो उसको पढाने का प्रबन्ध करना, कोई किसी शोक से दुखी हो तो उसको सात्वना देना, आदि। इन सब कार्यों के लिये हमे अपना समय और धन देना पडता है तथा अपना सुख छोडना पडता है । यह सब त्याग के अन्तर्गत आता है । दूसरे शब्दो मे इसको दया करना व दान देना भी कहते हैं। इस दया, दान व त्याग की भावना को पुष्ट करने के लिये भगवान महावीर ने परिग्रह परिमाण व्रत का उपदेश दिया। उन्होने कहा कि अपनी आवश्यकताओ को कम से कम करते जाओ । अपनी धन संग्रह की लालसा पर अकुश रखो और उसको किसी सीमा मे बांध दो, जैसे कि हम एक मकान से अधिक नहीं रखेंगे, अमुक सख्या से अधिक कपड़े व अन्य वस्तुएँ नहीं रखेंगे, अमुक राशि से अधिक
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