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परम्परा कदाचित् मथुरा से प्रचलित हुई, जहाँ एक अत्यत प्राचीन स्तूप के अवशेष मिले हैं। उनमे एक प्राचीन शिलालेख भी मिला है, जिसमे कहा गया है कि “वह स्तूप देवो के द्वारा निर्मित किया गया था"; - इसका अर्थ यह है कि उस समय वह स्तुप इतना प्राचीन हो चुका था कि लोग उसके निर्माता का नाम भूल चुके थे और उसे देवों की रचना मानने लगे थे। इस दृष्टि से कहना होगा कि उस स्तूप का निर्माण तीर्थकर महावीर से भी पूर्व, तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय में हुआ होगा। प्रमुख वास्तुविद्यावेत्ताओं ने उसे भारतीय स्थापत्य की प्राचीनतम रचना माना है।
भारत मे जो प्राचीन, बल्कि प्रागैतिहासिक काल के निर्माणों के अवशेष मिले है, उनमे मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त पुरातात्त्विक महत्त्व की सामग्री अन्यतम है जिसका तात्पर्य है कि भारत के धार्मिक वास्तु-निर्माण में भी जैन समाज अग्रणी रहा, मूर्ति-निर्माण मे तो वह अग्रणी रहा ही है। पटना के समीप लोहानीपुर मे तीर्थकरों की पाषाण-मूर्तियों बनायी गयीं, जिनका समय ईसा से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व मौर्य-काल के आरभ में ऑका गया है। आयाग-पटों पर उत्कीर्ण स्तूप
वास्तु-विद्या मे स्तूपों के निर्माण का या उनके आकार-प्रकार का उल्लेख नहीं है, परन्तु साहित्य मे इसके कई उल्लेख हैं। तथा मथुरा से ही प्राप्त दो आयाग-पटों पर साहित्य से भी अधिक स्पष्ट चित्रण हुआ है। लगभग दो फुट लबी और उतनी ही चौड़ी पाषाण की नक्काशीदार शिलाएँ 'आयागपट' कहलाती हैं, जिनका उपयोग दो-ढाई हज़ार वर्ष पहले मथुरा में बहुत होता था। ___ मथुरा में खुदाई (एक्स्केवेशन) में मिले उक्त स्तूप के खडहर से ज्ञात होता है कि उसका तलभाग गोलाकार था, जिसका व्यास 47 फुट था। उसमे केंद्र से परिधि की ओर बढ़ते हुए व्यासार्ध वाली 8 दीवालें ईटो से चुनी गई थीं। ईटें छोटी-बड़ी हैं। स्तूप के बाह्य भाग पर जिन-प्रतिमाएँ थीं। पूरा स्तूप कैसा था? -इसका कुछ अनुमान उसकी खुदाई से प्राप्त सामग्री से लगता है। अनेक प्रकार के मूय॑कनों से युक्त जो पाषाण-स्तंभ मिले हैं, उनसे प्रतीत होता है कि स्तूप के आसपास प्रदक्षिणा-पथ और तोरणद्वार रहे होंगे। उक्त आयाग-पटों पर अंकित स्तूप भी यही आभास देते हैं, जो
(जन वास्तु-विद्या)