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कितु एक ही प्रवाह में नहीं; जबकि जैन मंदिर उसी प्रवाह में विकसित हुआ इसका परिणाम यह भी हुआ कि जैन स्थापत्य के सिद्धांत का प्रतिपादन करने को पृथक् रूप में लिखे गए ग्रंथो की संख्या अत्यत कम है। मंदिर के अंग और विभाग
मदिर का गर्त-विवर या नीव का गड्ढा इतना गहरा हो कि वहाँ या तो भूगर्भ से जल निकलने लगे या शिलातल निकल आए। गर्त-विवर के मध्य धार्मिक अनुष्ठानो के साथ कोण-शिला स्थापित की जाए। जिस दिशा मे खात हुआ हो, वहीं नींव मे शिलान्यास-विधि की जाती है। ज्योतिष के अनुसार जिस दिशा मे सूर्य हो, उस कोण में पचपरमेष्ठी की पूजन करके नीचे एक फुट लंबी-चौडी शिला स्थापितकर, उस पर स्वस्तिक व प्रशस्तिसहित विनायक-यंत्र स्थापित करें। प्रशस्ति में मदिर-निर्माता का नाम, तिथि, संवत् आदि उत्कीर्ण होते हैं। पश्चात् वहाँ छोटा ताम्रकलश स्थापित करें, जिसमें दीपक प्रज्वलित करे। उस पर एक दूसरी 1 फुटx1 फुट की शिला रख देवें। आसपास की इटों से उसे सीमेंट द्वारा समतल किया जाये। इस धार्मिक मंदिर भूमि के बाहर (आगे) शिलापट्ट पर मंदिर-सम्बन्धी प्रशस्ति उत्कीर्ण की जाकर किसी व्यक्ति-विशेष के द्वारा उसका अनावरण कराया जाये-यही शिलान्यास-विधि है। इसे विशिष्ट मुहतों मे ही किया जाना चाहिए। सूर्य की राशि से 'खात' एवं शिलान्यास के मुहुर्त की दिशा का ज्ञान कोण , | अग्नि
वायव्य | नैऋत्य
गृहारम्भ सिह, कन्या, | वृश्चिक, धनु, | कुम्भ, मीन, वृष, मिथुन, तुला मकर
कर्क देवालय | मीन, मेष, 1 मिथुन, कर्क, कन्या, तुला, धनु, मकर,
वृश्चिक सिंह वृष कुम्भ जलाशय | मकर, कुम्भ, । मेष, वृश्चिक, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, मिथुन मीन
कन्या धनु
(जन वास्तु-विधा