________________
मंदिर की अवधारणा
'मंदिर' शब्द का अर्थ और भावार्थ
'मंदिर' शब्द का अर्थ संस्कृत में देवालय भी होता है और आवासगृह भी; परंतु हिंदी में वह प्रायः देवालय के अर्थ मे ही चलता है। जैन साहित्य मे एक शब्द और भी इस अर्थ में विशेषरूप में चलता रहा है, वह है 'आयतन', जिसका प्रयोग 'जिनायतन' के अंतर्गत होने लगा और उसके भी बाद मंदिर, आलय, प्रासाद, गेह, गृह आदि शब्दों ने उसका स्थान ले लिया । 'जिनायतन' शब्द के प्रचलन से एक बात सूचित होती है कि मदिर मे 'जिन' भगवान् का मूर्ति के रूप मे निवास होता था । 'मूर्ति' के लिए 'चैत्य' शब्द का भी चलन था, इसीलिए 'चैत्यालय' शब्द भी मंदिर के अर्थ मे आज भी चलता है। अकृत्रिम चैत्यालयो मे विराजमान जिन-बिबो को अर्घ 56 देने का विधान भी आज जैन पूजा-पाठ का एक अंग है। 'अकृत्रिम चैत्यालय' का अर्थ है विजयार्ध पर्वत, कुलाचलों आदि पर विद्यमान शाश्वत जिनायतन: जिनका निर्माण नहीं किया जाता ।
जैन मंदिर : समवशरण का प्रतीक
प्रसिद्ध कला - इतिहासज्ञ आनन्दकुमार कुमारस्वामी ने 'हिस्ट्री ऑफ इडियन एड इडोनेशियन आर्ट' मे लिखा है, इसमें सदेह नही कि मंदिरो और अतिम संस्कार के स्थानो मे कोई एकरूपता है; परंतु उनका यह कथन जैन मंदिर के सदर्भ मे तनिक भी सार्थक नहीं। इस सदर्भ में जैन कला और स्थापत्य, खड 3 की ये पक्तियाँ द्रष्टव्य है- "मंदिर अनिवार्यरूप से किसी तीर्थकर को समर्पित होता है, इसलिये उसे एक स्मारक की सज्ञा देना किसी सीमा तक तर्कसंगत हो सकता है। पर यह निश्चित है कि मदिर ऐसा स्मारक नही, जो किसी के अंतिम संस्कार के स्थान पर अथवा अस्थि आदि अवशेषो पर निर्मित किया जाता है।"
इसके विपरीत मदिर को एक अतदाकार स्थापना या प्रतीक मानना अधिक तर्कसगत होगा, वह मेरु का नहीं बल्कि समवशरण का प्रतीक हो
जैन वास्तु-विद्या
62