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गया है। उदाहरण के लिए, काव्यशास्त्र में छंदों का लक्षण बताने के लिए गुरु (5) और लघु (1) के जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है; उनका प्रयोग वास्तु-शास्त्र में दीवारों (s) और कक्षों (1) की संख्या और स्थिति बताने के लिए किया गया है, जिससे घरों के सोलह भेद बनते हैं; जैसाकि यहाँ रेखा-चित्रों में प्रदर्शित है। धव' नामक प्रथम प्रकार के घर में चारों गुरु (5) हैं, यानी, चारो ओर दीवार है; कोई लघु (1) नहीं है, यानी कोई कक्ष नहीं है। 'धान्य' घर में एक लघु है, उसकी पूर्व दिशा में कक्ष है। जय' घर में दूसरे स्थान पर लघु है, उसके दक्षिण में कक्ष है। नंद' घर में दो लघु हैं, उसकी पूर्व और दक्षिण दिशाओं में एक-एक कक्ष है। सोलहवें, 'विजय' प्रकार के घर में चारों लघु हैं, उसकी चारों दिशाओं में कक्ष है।
इतना ही नहीं, इन सोलहो प्रकार के घरों का वास्तु-विद्या के अतिरिक्त साहित्यिक और सामाजिक महत्त्व भी है। उनके नामो के अपने-अपने शुभ या अशुभ फल भी होते हैं (क्रमशः) जय; धान्य-वृद्धि; शत्रु पर विजय; सब प्रकार की समृद्धि क्लेश, लक्ष्मी-आयु-आरोग्य-ऐश्वर्य-संपत्ति; मानसिक संतोष; राज-सम्मान; कलह; भयंकर बीमारी और भय; कुटुंब की वृद्धिः स्वर्ण, रत्न और गाय की प्राप्ति क्षय (हानि); घर-परिवार में जन-हानि; गृह-स्वामी आदि को आरोग्य और कीर्ति; सब प्रकार की संपत्ति। चौंसठ प्रकार के आवास-गृह
शांतन आदि के नाम से चौंसठ प्रकार के द्विशाल (दो कमरो वाले) घरों के विभाजन का आधार भी उतना ही रोचक है: दक्षिण और आग्नेय दिशाओ मे एक-एक कक्ष हों और उनके मुख उत्तर दिशा में हों, तो वे 'करिणी' (मादा हाथी) कक्ष कहे जाएँगे। नैऋत्य और पश्चिम में पूर्वमुखी कक्ष महिषी' (भैंस) कहे जाएँगे, वायव्य और उत्तर के दक्षिण-मखी कक्ष 'गावी' (गाय), तथा पूर्व और ऐशान के पश्चिम-मुखी छागी' (बकरी) कक्ष कहे जायेगे। इन चारो की विभिन्न और संयुक्त स्थितियो से, शांतन' से 'कटक' तक के, चौंसठ प्रकार के घर होंगे। स्तंभ-संख्या द्वारा परिचित घर ___ बारह से चौंसठ तक स्तंभों की संख्या के कारण भी घरों के सत्ताईस नाम निर्धारित किए गए हैं। वास्तु-विद्या में उनका बड़ा महत्त्व है। उनके रेखाचित्र प्रस्तुत हैं। जिन वास्तु-विया