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आयादि षड्वर्ग ('वत्यु-सार-पयरण' से)
आय, नक्षत्र, राशि, व्यय, अश और तारा- ये छह मुद्दे ही 'आयादिषड्वर्ग' है। 'विश्वकर्म-प्रकाश' नामक ग्रंथ की व्यवस्था इस सदर्भ में महत्त्वपूर्ण है. "जिस घर की लंबाई ग्यारह हाथ से अधिक बत्तीस हाथ तक हो उसमें आयादि का विचार करना चाहिए। जो घर इससे अधिक लंबा हो, टूटा-फूटा हो, घास-फूस का बना हो; उसमें आयादि का विचार अनावश्यक है ।" 'वत्थुसार पयरण' में एक उदाहरण देकर कहा गया है कि "जिसप्रकार वधू और वर मे परस्पर प्रेम-प्रीति होनी चाहिए; उसीप्रकार गृह और गृहस्वामी के नक्षत्र, राशि आदि का मिलान अत्यंत आवश्यक है।"
प्रस्तावित भूमि की अंगुलों (लगभग एक इंच) में लंबाई से चौडाई का गुणा करके गुणनफल में आठ का भाग दिया जाए, क्योकि 'आय' आठ प्रकार के होते हैं। भाग देने पर जो सख्या शेष बचे, उसी के क्रमांक का आय उस भूमि का माना जाए। जैसे भूमि की लंबाई 177 अगुल x चौडाई 127 अगुल = 22479 अंगुल क्षेत्रफलः जिसमे 8 का भाग देने पर 7 शेष बचे, इसलिए सातवें क्रमांक का आय- 'गज' (हाथी) माना जाए। आठ आय और उनकी दिशाएँ हैं: ध्वज-पूर्व, धूम्र आग्नेय, सिह दक्षिण, श्वान नैर्ऋत्य, वृषपश्चिम, खर- वायव्य, गज-उत्तर, कौआ-ऐशान। इन आयों में ध्वज, सिंह, गज और वृष 'आय' शुभ हैं, शेष चारों अशुभ हैं।
उक्त गुणनफल में नक्षत्रों की संख्या 'सत्ताईस' का भाग देने पर जो शेष बचे, उसके क्रमांक का नक्षत्र समझा जाए। उदाहरण के लिए उक्त गुणनफल 22479 में 27 का भाग देने पर 12 शेष बचे, इसलिए बारहवे क्रमाक का नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी' माना जाए।
नक्षत्र के सदर्भ मे जो क्रमांक आए, उसमे चार गुणा करने पर आए गुणनफल मे राशियो की संख्या नौ का भाग दिया जाए जो लब्धि ( भागफल ) आए, वह उसके क्रमांक की राशि मानी जाए। उदाहरण के लिए, उपर्युक्त नक्षत्र का क्रमाक 12 x 4 48 +9 लब्धि हुई 5; इसलिए पाँचवे क्रमांक की राशि 'सिंह' हुई (यह नियम सर्वत्र लागू नहीं होता) ।
नक्षत्र के संदर्भ में आए क्रमाक 12 मे व्ययों की संख्या 8 का भाग देने पर शेष बचा 4; इसलिए चौथा व्यय 'क्षय' माना जाए। व्यय की यह संख्या, 4 उपर्युक्त आय की संख्या 7 से कम है, इसलिए यह शुभ है; क्योंकि आय
जैन वास्तु-विद्या
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