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प्रयत्न है पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के सदुपयोग का। वास्तुविद्या में ये पाँचों महाभूत2 या महातत्त्व मौलिक स्थान रखते हैं।
पृथ्वी पर निर्माण कार्य होता है। मिट्टी, पत्थर, खनिज, सीमेंट आदि पृथ्वी के अंग हैं; जो निर्माण के उपादान कारण हैं। वैज्ञानिक आविष्कार परम्परागत वस्तुओं को उपेक्षित करते जा रहे हैं। लेकिन पृथ्वी-तत्त्व ऐसा है, जो किसी-न-किसी रूप में अनिवार्य बना रहेगा।
जलतत्त्व का साम्राज्य इस पृथिवी के दो-तिहाई भाग पर है। निर्माणकार्य में जल चाहिए, उद्योग-व्यवसाय में जल चाहिए, निर्माता को दैनिक उपयोग के लिए जल चाहिए। इस संदर्भ मे आचार्य उग्रादित्य ने बड़ी मार्मिक चेतावनी दी है कि "जो गाँव सविधाहीन हो, जिसमें कुआँ गाँव के बाहर कहीं दूर भयकर जगह पर हो, तथा यदि गाँव में भी हो, पर वह कुआँ इतना गहरा कि उससे जल निकालने के लिए यत्र की आवश्यकता पड़े; तो वह गाँव रहने योग्य नहीं है। 33 इसीलिए वास्तु-विद्या में परामर्श दिया गया है कि भूमि के चयन करते समय जल की सुविधा का ध्यान रखा जाए।
अग्नि के नाम से भयभीत न होकर उत्साहित होना चाहिये; क्योकि ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक आविष्कार बढ़ेंगे, त्यों-त्यों अग्नि का महत्त्व भी बढ़ेगा। आज विद्युत शक्ति के रूप में अग्नि का उपयोग प्रतिक्षण हो रहा है, कदमकदम पर हो रहा है। अण में प्रच्छन्न अग्नितत्त्व का उद्घाटन ही नहीं, बल्कि उसकी शक्ति का परीक्षण भी हो चुका है। वास्तु-विद्या में भी अग्नितत्त्व की महत्ता अक्षुण्ण है।
'वायु' नामक महाभूत की महत्ता वास्तु-विद्या में तो है ही, दुनिया की सभी विधाओ मे है। प्रत्येक प्राणी के लिए प्रतिपल वायुतत्त्व आवश्यक है। वायुयान के आविष्कार से वायु की धारण-शक्ति का सप्रमाण परिचय मिला है। जैन आचार्यों का यह विधान अब शत-प्रतिशत सत्य माना जा रहा है कि 'वायु मे स्पर्श के साथ रस, गंध, रूप और शब्दोत्पादक शक्ति भी होती है। वास्तु-विद्या में तो वायु-संचार को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है।
आँगन, लॉन, टैरेस, छत, मंडप, पार्क, मैदान आदि के रूप मे खुलपेन का प्रावधान वास्तु-विद्या मे आकाश की महत्ता सिद्ध करता है। जो अनत है, सर्वव्यापी और सर्व-अवगाहक है-ऐसे आकाश के लाभ भी अनंत हैं।
(जैन वास्तु-विधा