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आदि के निर्माण की विधि, मुहूर्त, फलाफल आदि पर विचार करते समय वास्तुविद्या के संदर्भ आते हैं। इसीप्रकार गणित, मंत्र-तंत्र और ऐसे ही अन्य विषयों के ग्रंथो में भी इस विषय के प्रसंग आते हैं। आचार्य उमास्वामी के नाम से प्रचलित एक श्रावकाचार ग्रंथ में भी लिखा है कि घर की किस दिशा में कौन-सा कक्ष हो। वास्तु-विद्या पर आधुनिक लेखन
सामाजिक उत्थान, मनोवैज्ञानिक परिवर्तन, औद्योगिक प्रगति और वैज्ञानिक चमत्कारों ने मिलकर वास्तु-विद्या का भी अभूतपूर्व विकास किया है। प्राचीन आचार्यों द्वारा बनाए गए नुस्खे और नियम बेकार साबित नहीं हुए हैं। परन्तु उनकी माँग को निर्माण की नई-नई विधियो, शैलियो, सामग्रियों आदि ने प्रभावित अवश्य किया है।
उपर्युक्त सभी बातों को ध्यान में रखकर वास्तु-विद्या पर नए ग्रंथ भी लिखे जा रहे हैं, प्राचीन ग्रथों के आधार पर और स्वतंत्र चिंतन के आधार पर भी, शोध-खोज के स्तर पर और व्यावसायिक स्तर पर भी, भारत मे और भारत के बाहर भी। इन ग्रंथों का सर्वेक्षण और मूल्यांकन एक बहुत बड़ा काम है। जैनदृष्टि से यह काम किसी सीमा तक स्व. डॉ. यू.पी. शाह, प्रो. एम.ए. ढाकी और डॉ. गोपीलाल 'अमर' ने किया है। फिर भी इस विषय पर शोध-खोज की बहुत आवश्यकता है।
चूंकि वास्तु-विद्या के प्राचीन, मध्यकालीन और नवीन ग्रंथों में एक भी ऐसा नहीं है जिसमें इस विद्या के प्रत्येक अग और उपांग की सविस्तार व्याख्या वैज्ञानिक और तुलनात्मक दृष्टि से की गई हो; इसलिए यह शोध अधिक आवश्यक है। सामान्यदृष्टि से इस दिशा में डॉ. प्रसन्न कुमार आचार्य, डॉ. तारापद भट्टाचार्य, डॉ. द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल, श्री अमलानन्द घोष, प्रो. कृष्ण देव आदि ने कुछ काम किया है; परंतु जैनदृष्टि से अभी पर्याप्त कार्य होना बाकी है। जैन आर्ट एंड आर्किटेक्चर' और 'जैन कला और स्थापत्य' के तीन-तीन खड भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से 'आस्पेक्ट्स ऑफ जैन आर्ट एंड आर्किटेक्चर' ला.द. इंस्टीट्यूट, अहमदाबाद से; पैनोरमा ऑफ जैन आर्ट' टाइम्स ऑफ इडिया, नई दिल्ली से तथा कुछ अन्य ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं। वे अच्छे हैं, किंतु अपर्याप्त हैं। वास्तव में 'जैन वास्तुविद्या पर एक विश्वकोश की आवश्यकता है। (जन वास्तु-विज