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वास्तु-विद्या का अन्य विषयों से सम्बन्ध
शिल्पकला
उपर्युक्त कारणों से वास्तु-विद्या का विकास हुआ, जिसकी अनुगामी हुई शिल्प-कला । इस विद्या-कला के युगल ने धर्म के साथ जुड़कर भारतीय वाङ्मय को काव्य-ग्रंथो के बाद कदाचित् सर्वाधिक ग्रंथ दिये। राजमहलों की बाह्य और आंतरिक सज्जा, यहाँ तक कि शय्या-आसन आदि तक के आकार-प्रकार पर इन ग्रंथो ने विस्तृत नियम और उपनियम बनाये। तेरहवीं शताब्दी मे आचार्य-कल्प पडित आशाधर जी ने चेतावनी दी कि 'जैन मदिर और मूर्ति का निर्माता अपना और अपने राजा का भला चाहे, - तो वास्तुशास्त्र का उल्लघन नहीं करे' : "वास्तु शास्त्रं न लंघयेत् । "14 वास्तु-विद्या और शिल्प कला के युगल ने वाङ्मय के क्षेत्र मे प्रवेश से बहुत पहले व्यावहारिकरूप लेना आरंभ कर दिया था। लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यता' मे ये युगल कुलाँचे भरने लगा था । सिध-सभ्यता और तीर्थंकर महावीर के बीच के काल मे वह युगल किशोर अवस्था की ओर बढा; जब उत्तर प्रदेश के मथुरा मे 'देव-निर्मित' स्तूप की रचना हुई । मथुरा मे ही वास्तु-विद्या और शिल्प कला के युगल ने युवावस्था की ओर कदम बढाया तथा उड़ीसा मे इसने उदयगिरि खडगिरि और बिहार में पाँच पहाड़ियों आदि की यात्रा की ।
भारतीय इतिहास के स्वर्णकाल मे गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत पाँचवींछठी शती तक उसने यौवन की देहली पर पाँव रखे। मध्यकाल तक वास्तुविद्या और शिल्प कला का युगल राजगद्दी पर बैठ चुका था। जब ऐलोरा के गुफा मंदिर, श्रवणबेलगोल के गोम्मटेश्वर बाहुबली, खजुराहो के मूर्तिमान् मंदिर, आबू के संगमरमरी शिल्प, शत्रुजय आदि के मंदिर नगर, जैसलमेर आदि के शास्त्र भडार तथा अन्य चमत्कार सामने आये। इन चमत्कारों में स्थापत्य और शिल्प की ऐसी सगति बैठाई गई है, जैसी शब्द और अर्थ की होती है. काव्य और रस की होती है । 15 उससे समझ में आता है कि स्थापत्य और शिल्प पर सयुक्त ग्रंथ क्यों लिखे गए, अलग-अलग क्यों नहीं।
(जैन वास्तु-विद्या