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वैराग्यमाव के पोषण का कथन है। अब यदि घर ही अशुभ होगा, गलत ढंग से निर्मित होगा; तो उसमे निराकुलतापूर्वक धर्मध्यान एव संयम-वैराग्य आदि के प्रशस्तकार्य कैसे संभव हो सकेगे? संभवतः इसी दृष्टि से 'घर' को भी शास्त्र की मर्यादा के अनुसार शुभकारक बनाने के लिये वास्तुशास्त्र में सांसारिक उपयोग के भवनों की भूमि एवं निर्माणकार्य-संबंधी नियमावली भी बतायी गयी है। तथा यहाँ तक कहा गया है कि
"अशास्त्रं मन्दिरं कृत्वा, प्रजा-राजागृहं तथा। तद्गृहमशुभं शेयं, श्रेयस्तत्र न विद्यते ।।"
अर्थ:-वास्तुशास्त्र की विधि से विपरीत (नियमविरुद्ध ठग से) बने हुये जिनमंदिर, राजप्रासाद एवं प्रजा के साधारण मकान आदि कैसे भी भवन हों; वे सब (वास्तुशास्त्र-विरुद्ध होने से) अशुभ ही हैं। उनमे रहकर किसी का भी कल्याण होनेवाला नहीं है। ___संभवतः इसीलिये आचार्य उग्रादित्य ने कल्याणकारक' (7/18) में कहा है- "तत्रादितो वेरमविधानमेव, निगवते वास्तु-विचारयुक्तम्।"
अर्थ:--मकान आदि के निर्माण में (अन्य समस्त सामग्री-सहायकोसाधनों आदि के विचार से पूर्व) सर्वप्रथम वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से (भूमिपरीक्षण, भवननिर्माण-योजना आदि का) विचार करने का विधान किया गया है।
आचार्यदेव पुनः कहते हैं"प्रशस्त दिग्देशकृतं प्रधानमाशागतायां प्रविभक्तभागम्।" (वही, पृ० 109)
अर्थ:-प्रशस्त (शुभ) दिशा एवं प्रशस्त क्षेत्र में वास्तुशास्त्रीय विधि से भवन-निर्माण करना चाहिये। उसमें भी जो प्रधान दिशा का श्रेष्ठ भाग है, उसी में विधिवत् निर्माणकार्य होना चाहिये।
'धवला' जैसे विशाल जैनतत्त्वज्ञान-कोश' ग्रन्थ में भी वास्तुशास्त्र' अथवा वास्तुविद्या' को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है तथा वास्तु के विभिन्न अंगों के बारे में अनेकत्र प्रकरणवशात् उल्लेख वहाँ प्राप्त होता है। यथा(0"जिणगिहादीणं रक्खणडप्पासेसु ठविद ओलित्तीओ 'पागार' णाम।"
-(धवला 5/41, पृ० 40) अर्थ:-जिनमन्दिर आदि भवनों की रक्षा के लिए उनके चारों पावों मे जो भीत (दीवार) बनायी जाती है, उसे प्राकार' या परकोटा' कहते हैं। (1) "वंदणमालबंधणनै पुरदो विद-रुक्खविसेसो "तोरणं' णाम।" अर्थ:-वंदनवार बाँधने के लिए द्वार के आगे (दोनो ओर) जो वृक्ष-विशेष
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