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का वर्णन किया जाता है।
जैनकोशकारों ने 'कला' को "विज्ञान' (मानविशेष) माना है तथा कलनीय (कला-विषयों) के भेदों के आधार पर इसके "विसप्तति' (बहतर) भेद स्वीकार किये हैं। इन्हीं बहत्तर कलाओं में पैंतालीसवीं (45) कला का नाम 'वत्थुमाण' या 'वत्थुविज्जा' है (द्र० अभिधान राजेन्द्र कोश', तृतीय भाग, पृ० 376)। जबकि इतर भारतीय परम्परा में वास्तुविद्या' (शिल्पकला) को सैंतीसवीं (37) कला माना है।
इस वास्तुविधा' किंवा 'शिल्पशास्त्र के बारे में परिचय देते हुये जैन शास्त्रकार लिखते हैं(i) "वास्तु-अगारम्" (सर्वार्थसिद्धि 7/29, तत्त्वार्थ राजवार्तिक 7/29/1) (ii) "वास्तु च गृहम्" (तत्त्वार्थवृत्ति : श्रुतसागरी, 7/29) (ii) "वास्तु गृह-हट्टापवरादिकम्" (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, गा0 340) (iv) "वास्तु वस्त्रादिसामान्यम्" (लाटीसंहिता, 100) (v) "वसन्त्यस्मिन्निति वास्तु" (उत्तराध्ययन, 3)
-इन सभी परिभाषाओ के अनुसार वास्तु' शब्द का अर्थ निवास करने योग्य भवन आदि हैं। 'शब्दकल्पद्रुम' (भाग 4, पृष्ठ 358) के अनुसार 'वस निवासे' धातु से 'वसेरगारे णिच्च' इस उणादिसूत्र से 'तुण' प्रत्यय का विधान होकर "वास्तु' शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है 'गृहकरणयोग्यभूमिः' । अर्थात् 'गृह' आदि की तो वास्तु' संज्ञा है ही, गृह' (मकान) आदि बनाने के लिये परिगहीत भूमि को भी वास्तु माना गया है।
उक्त भवन' आदि वास्तु' का निर्माण जिस किसी भी भूमि पर यद्वातद्वा कैसे भी कर लिया जाये अथवा इसका कोई वैज्ञानिक विधि-विधान भी होना चाहिये? सभवत. ऐसी ही कोई जिज्ञासा होने पर सूक्ष्म अध्ययन, गहन चितन एव व्यापक प्रयोगात्मक अनुभवों के आधार पर वास्तु-निर्माण के सम्बन्ध मे जो नियम-उपनियम बनाये गये, उन्हे ही वास्तुविद्या के अन्तर्गत मर्यादित किया गया है।
आचार्य वीरसेन स्वामी इस वास्तुविद्या के सम्बन्ध मे लिखते है"वत्युविज्जं भूमिसंबंधिणमणं पि सुहासुहं कारणं वण्णेदि।"
अर्थ:-वास्तुविद्या (जहाँ वास्तु का निर्माण किया जाना है, उस) भूमि से सम्बन्धित तथा अन्य (वास्तुनिर्माण-विधि आदि से सम्बन्धित) शुभ एव
(जन वास्तु-विधा