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जीर्णोद्धार का विधान
जीर्णोद्धार की परम्परा
जीर्णोद्धार ( मरम्मत या रिपेयर) की परम्परा भारतीय कला और स्थापत्य मे प्राचीनकाल से रही है। मथुरा, सॉची, सारनाथ, भरहुत, अमरावती आदि के स्तूपों का विविधरूपो मे किया गया विस्तार उन्हे जीर्ण होने से बचाने के लिए था। अजंता के प्रथम शताब्दी ईस्वी में बने भित्तिचित्रो पर छठी और उसके बाद की शताब्दियों मे बनाए गए मित्तिचित्र भी जीर्णोद्धार की सीमा में लाए जा सकते है। मंदिरो आदि के जीर्णोद्वार 64 के स्पष्ट उल्लेख शताधिक शिलालेखो मे विद्यमान है।
इसके विपरीत मूर्तियो के जीर्णोद्वार के उदाहरण न प्राचीनकाल के मिलते हैं और न मध्यकाल के । मूर्तियो की स्थापना या प्रतिष्ठा के सहस्रो उल्लेख शिलालेखो और मूर्तिलेखो मे है; किंतु उनके जीर्णोद्धार के तो क्या, पुनः प्रतिष्ठा के भी उल्लेख नगण्य हैं। इसीप्रकार मूर्तिशास्त्रो में भी मूर्तियों के जीर्णोद्वार के विधान नगण्य है।
जैनमंदिरों का जीर्णोद्वार
मदिरों के निर्माण के पश्चात् उनके रखरखाव और सुरक्षा की चिंता उनके निर्माताओं को बहुत रहती थी; इसलिए वे उन मदिरो को पर्याप्त सम्पत्ति दे देते थे, जिसकी आय से उनका रखरखाव होता रहे। तो भी उन्होने उन मंदिरों के भविष्यकालीन संरक्षको से बहुत की मार्मिक शब्दो मे अनुरोध किया है कि "वे उनका सरक्षण अपनी ही रचना समझकर करते रहे", जिसके लिए वे (निर्माता) अपने आपको उन (तत्कालीन संरक्षको) के 'दासो का भी दास' (तस्य दासानुदासोहम् ) घोषित करते हैं। जो उस मदिर को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाएँ, उनके विरुद्ध अत्यंत कठोर और भर्त्सनापूर्ण शब्दों का प्रयोग किया गया है कि 'वे आततायी मरकर नरक मे सडेगे और मल के कीडे बनेगे।'
जैनमदिरों के जीर्णोद्धार का परामर्श कदाचित् सर्वप्रथम पडित
(जैन वास्तु-विद्या
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