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सुनकर अपने अभिप्राय' से स्वच्छन्दी हो जाये तो वहां ग्रन्थ का दोप नही है किन्तु उस जीव का ही दोप है । पुनश्च यदि झूठी दोप- कल्पना द्वारा अव्यात्म शास्त्रों के पठन-श्रवणका निषेध किया जाये तो मोक्षभार्ग का मूल उपदेश तो वही है ! इसलिये उसका निषेध करने से मोक्षमार्ग का निषेध होता है । जैसे- मेववृष्टि होने से अनेक जीवो का कल्याण होता है, तथापि किसी को उल्टी हानि हो जाये तो उसकी मुन्यता करके मेघ का निषेध तो नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार सभा मे अध्यात्मोपदेश होने से अनेक जीवो को मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है; तथापि कोई उल्टा पाप में प्रवर्तमान करे, तो उसकी मुख्यता करके अध्यात्म शास्त्रों का निषेध नही किया जा सकता ।
दूसरे, अध्यात्म ग्रन्थो से कोई स्वछन्दी हो जाये तो वह पहले भी मिथ्यादष्टि था और आज भी मिथ्यादृष्टि ही रहा। हाँ, हानि इतनी ही है कि उसकी मुगति न होकर कुगति होती है ।
और मव्यात्मोपदेश न होने में अनेक जीवो को मोक्षमार्ग प्राप्ति का अभाव होता है, इसलिये उससे तो अनेक जीवो का महान अहित होता है, इसलिये अध्यात्म उपदेश का निषेध करना योग्य नही है |
प्रश्न २१६ - द्रव्यानुयोगरूप अध्यात्म-उपदेश उत्कृष्ट है और जो उच्च दशा को प्राप्त हो उसी को कार्यकारी है; किन्तु निचली दशा वालो को तो व्रतः सयमादि का ही उपदेश देना योग्य है ?
उत्तर- जिन मत मे तो ऐसी परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व हो और फिर व्रत होते हैं; अव, सम्यक्त्व तो स्व-परका श्रद्धान होने पर होता है, तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने से होता है । इसलिए प्रथम द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान करके सम्यन्द्रष्टि हो और तत्पश्चात् चरणानुयोग के अनुसार व्रतादिक करके व्रती हो । इस प्रकार मुख्यरूप से तो निचली दशा मे ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है; तथा गौणरूप से जिसे मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती दिखाई न दे उसे प्रथम तो प्रतादिक का उपदेश दिया जाता है। इसलिए उच्च दशा