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________________ ( ३०१ ) शरीर इन्द्रियो मे, कर्मों से, विकारी भावो मे पडा हू - ऐसा मानेगा ? कभी भी नहीं । जहाँ राग कभी न प्रवेशी सकता, तहाँ निवास ही राखिए । वीतराग स्वरूपी निजआत्म मे वस ज्ञाता होके राचिए || २ || जहाँ भेद कभी नहीं न प्रवेशी सकता, तहाँ निवास ही राखिए अभेद स्वरूपी निज आत्म मे वस ज्ञाता होके राहिए ||३|| जहाँ चार कभी न प्रवेशी सकता, तहाँ निवास ही राखिए । पारिणामिक स्वभावी निज आत्म मे वस ज्ञाता होके राचिए ॥४॥ श्री समयसार के कलश ६९ मे लिखा है कि "जो नयो के पक्षपात को छोड़कर सदा अपने स्वरूप मे गुप्त होकर निवास करते है वह ही विकल्प जाल से रहित साक्षात् अमृतपान करते है ।" और जो पर, विकार, भेदकर्म, अभेदकर्म, नय के पक्ष मे पड़े रहते है, उनका विकल्प कभी मिटेगा नही और उन्हे वीतरागता की प्राप्ति भी नही होगी । इसलिए ज्ञानी तो एक मात्र अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावी अखड एक आत्मा मे ही निवास करता है, पर मे नही करता । प्रश्न १८७ - किस-किस गति मे किस-किस कषाय की मुख्यता है ? उत्तर - (१) क्रोध की मुख्यता नरक गति मे । (२) मान की मुरुपता मनुष्य गति मे है । (३) माया की मुख्यता तिर्यंच गति मे है । (४) लोभ की मुख्यता देव गति में है । प्रश्न १८८ - यदि व्यवहार बढे, तो निश्चय बढ़े, क्या यह ठीक हैं ? उत्तर - बिल्कुल गलत है, क्योकि ( १ ) द्रव्यलिगी को व्यवहारभास जिनागम के अनुसार है, उसे निश्चय होता ही नही है । (२) ८- ९-१० वे गुणस्थान मे निश्चय है । वहाँ देव, गुरु, शास्त्र, अणुव्रत, महाव्रतादि का विकल्परूप व्यवहार है ही नही । इसलिए व्यवहार बढे तो निश्चय बढे यह बात मिथ्यादृष्टियो की है ।
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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