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प्रस्तावना
(1) सूरस्थ गण-कादलूर ताम्रपत्र में (क० १७) इस गण के एलाचार्य को मिले हुए ग्रामदान का वर्णन है । सन् ९६२ के इस लेख में इन के पूर्व के चार आचार्यों के नाम-प्रभाचन्द्र, कल्नेलेदेव, रविचन्द्र तथा रविनन्दि-दिये हैं अत इस परम्परा का अस्तित्व सन् ९०० के लगभग प्रमाणित होता है (इस गण का यही प्राचीनतम लेख है ) । अक्किगुन्द के १२वी सदो के लेख (क्र. ११८ ) में इस गण के जयकोति भट्टारक की शिष्याओ के व्रत-उद्यापन का वर्णन है। अलदगेरि के तेरहवी सदी के तीन लेखो में (क्र. १६३-५ ) इस गण की नागचन्द्र-नन्दिभट्टारक
-नयकीति इस आचार्यपरम्परा का उल्लेख है । ये लेख इन के शिष्यों के समाधिमरण के स्मारक है। इस संकलन में इस गण के उपभेदों का उल्लेख नही आ पाया है ( पिछले संग्रह मे कोरूर गच्छ तथा चित्रकूटान्वय इन उपभेदो के नाम मिले हैं, कही-कहीं सूरस्थगण सेनगण का नामान्तर मामा गया है)।
(२) सेनगण - पन्द्रहवी सदी के केरूर के मूर्तिलेख (क्र० २२८) मे इस गण के गुणभद्र आचार्य का उल्लेख है। सन् १६१४ के सोनागिरि के मूर्तिलेख ( क्र० २५८) में पुष्करगच्छ-ऋषभसेनान्बय के विजयसेन व लक्ष्मीसेन के नाम उल्लिखित है (यहाँ सेनगण का नाम नहीं है किन्तु उक्त गच्छ व अन्वय इसी गण के अन्तर्गत थे यह अन्य लेखो से मालूम हुआ है)। यही के सन् १८७३ के दो मूर्तिलेखो में इस गण के लक्ष्मीसेन का उल्लेख है (पिछले संग्रह में सेन-परम्परा के उल्लेख सन् ८२१ से प्राप्त हुए है, इस के ज्ञात उपभेदो का अपर द्राविड संघ के परिच्छेद में उल्लेख कर चुके हैं।
(१) देशीगण-सन् १०८७ के पदूर के लेख (क्र. ५५ ) में इस गण के पुस्तकगच्छ के पानन्दि मलधारिदेव को मिले हुए भूमि दान का वर्णन है। हलेबोड के ११वी सदी के लेख में इसो गच्छ के नेमिचन्द्र भट्टारक के शिष्यों द्वारा मूर्ति स्थापना का उल्लेख है (क्र. ६६) । चितापुर के १२वी