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नैन शिलालेख संग्रह
का है तथा इसमें अजित सेन- कनकसेन- नरेन्द्रसेन - नयसेन इस परम्पराका वर्णन है । लेखके समय सिन्द कुलके सरदार कंचरसने नयसेनको कुछ दान दिया था । नयसेनके शिष्य नरेन्द्रसेन (द्वितीय) का उल्लेख सन् १०८१ के लेख ( क्र० १६५ ) में मिलता है । दोण नामक अधिकारी-द्वारा इन्हें कुछ दान दिया गया था । इन लेखोंमें नरेन्द्रसेन तथा नयसेनकी व्याकरणशास्त्रमे निपुणता के लिए प्रशंसा की गयी है ।
एक लेख ( क्र० १४७ ) मे चन्द्रिकवाट वंशके शान्तिनन्दि भट्टारकका सन् १०६६ मे उल्लेख है । इसमे मूलसंघका उल्लेख है किन्तु सनगणका उल्लेख नही है ।
सेनगणके तीसरे उपभेद पुस्तकगच्छका वर्णन १४वीं सदीक एक लेख ( क्र० ४१५ ) मे हैं । इसमें ग्यारह आचार्योकी परम्परा बतलायी है । इस परम्परा के प्रभाकरसेनके शिष्य लक्ष्मीसेनके समाधिमरणका प्रस्तुत लेखमें वर्णन है । लक्ष्मीसेनके शिष्य मानसेनका समाधिमरण सन् १४०५ हुआ था (ले० ४२१ ) |
प्रस्तुत संग्रहके पाँच लेखो मे सेनगणका उल्लेख किसी उपभेदके बिना हुआ है ( क्र० ४९२, ४९३, ५०४, ५०७, ६२६ ) । पहले दो लेखामे सन् १५९७ मे सोमसेन भट्टारक द्वारा एक मन्दिरके जीर्णोद्धारका वर्णन है । अगले दो लेखों ( ५०४, ५०७ ) मे समन्तभद्र आचार्यका सन् १६२२ एवं १६३२ मे उल्लेख है । सन् १६२२ मे उन्होंने एक मन्दिरका जीर्णोद्धार किया था तथा सन् १६३२ मे दोवालीका त्योहार मनानेके ढंगमे कुछ सुधार किया था । अन्तिम लेख अनिश्चित समयका है तथा इसमें प्रसिद्ध वादी भावसेन त्रैविद्यचक्रवर्तीके समाधिमरणका उल्लेख है ।
१. पहले संग्रह में चन्द्रकबाट अन्वयका कोई वर्णन नहीं है ।
२. भावसेन कृत संस्कृत ग्रन्थ विश्वतश्वप्रकाश जीवराज ग्रन्थमाला ( शोलापुर ) द्वारा प्रकाशित हो रहा है। इसकी प्रस्तावना में हमने भावसेनका समय १३वीं सदीका उत्तराधे निश्चित किया है ।