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________________ जैन शिलालेख संग्रह नहीं बनाया जा सकता । ये लेख जैन मुनियोंकी पूरी गणनाका लेखा नहीं समझना चाहिए । ८ ४. कन्नड लेखोंका जो सार हिन्दोमे दिया गया है उसीके आधार मात्रसे कोई नयी कल्पनाएं नहीं करना चाहिए। उसके लिए मूल पाठ और उसके शब्दश: अनुवादका अवश्य अवलोकन करना चाहिए । यथार्थतः ये लेख संग्रह सामान्य जिज्ञासुओंके लिए तो पर्याप्त है । किन्तु विशेष संशोधकोंके लिए तो ये मूल सामग्रीकी ओर दिग्निर्देश मात्र ही करते हैं । इस ग्रन्थमालाको अपनी गोद में लेकर श्री शान्तिप्रसादजी व श्रीमती रमारानीजीने न केवल समाजके एक अग्रणी हितैषी सेठ माणिकचन्द्रजीकी स्मृति की रक्षा की है व ग्रन्थमालाके जन्मदाता पं० नाथूरामजी प्रेमीकी भावनाको सम्मान दिया है किन्तु जैन साहित्यकी रक्षा व जैन इतिहासके नवनिर्माण कार्य में बड़ी महत्त्वपूर्ण सेवा की है जिसके लिए समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा | ही. ला. जैन आ. ने. उपाध्ये ( प्रधान सम्पादक ) 1 -
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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