________________
ध्यान का माप जैन साहित्य में "एका पिता निरोषो" कहा गया है। यहां चिन्ता का तात्पर्य है पन्त. करण व्यापार-चिन्ता पन्तकर पतिः। . बमन, भोजन, भवन, मध्ययन प्रादि विविष क्रियामों में मटकाले बामी मितिका एक क्रिया में रोक देना निरोष है। मन का तात्पर्य प्रधान के अतिरिक्त, "पर तीति अग्रम पात्मा" कहा गया है। इस म्युत्पत्ति से ध्यान का नाम है प्रधान मात्मा को लक्ष्य बनाकर निन्द्रा का निरोष करना । इसमें बाह चिन्तामों से नित्ति होती है और स्वकीय बुति में प्रवृत्ति होती है ।
ध्यान की परिभाषा में मान के प्रतिरिक्त ध्याता और ध्येय (मासंबमविषय) भी समाविष्ट है अर्थात किसी पालम्बन पर जब ध्याता मन्तःकरण की मापारिक क्रियाओं को केन्द्रित करता है तब हम उसे ध्यान कहते हैं। माधुनिक मनो. विशाम में भी ध्यान की परिभाषा यही दी गई हैं।
जैन धर्म मे ध्यान के चार प्रकार किये गये हैं-पातं ध्यान, रोद्र ध्यान, धर्म ध्यान, मौर शुक्ल ध्यान । "विष, शत्र, शस्त्र भादि दुखद प्रप्रिय वस्तुमो से मिल जाने पर ये मुझ से कैसे दूर हो" इस प्रकार की सबल चिन्ता करना मार्स ध्यान है । इसमें क्रन्दन, दीनता, मश्र बहाना और विलाप करना जैसे लक्षण मिलते है। बाधक तत्वो के माने पर स्वभावतया व्यक्ति का मन और उसकी क्रियायें उन तत्वो को दूर करने में जुट जाती है । दूर करने की चेष्टामो मे जम शक्ति क्षीण हो जाती है तब वह रोने चिल्लाने लगता है । इस प्रवृत्ति के पन्तर्गन मरुचिकर संयोग को वियुक्त करना, रुचिकर सयोग को पृथक् न होने देना, सम्प्रयुक्त होने पर उसके विप्रयोग की स्मृति से समन्वागत होना और प्रीति जनक काम भोगो के सम्प्रयोग से सम्प्रयुक्त होने पर उनके मविप्रयोग की स्मृति से समन्वागत होना, ये पार प्रकार के मनोभाव दिखाई देते है। इनके होने पर व्यक्ति का मन सदैव दूषित
1. उत्तम सहननस्यकामिन्तानिरोधो ध्यानमाम्तहादतवाचं सूत्र
9.26. 2. बत्वार्थ वातिक 9.27.4. ३. बही-9. 27. 29 4. चित्तवृत्तियो को सभी पदार्थों से हटाकर किसी एक विशेष पदार्थ प्रया
विषय पर केन्द्रित कर लेना, भ्यान है-मनोविज्ञान, पं. जगदानन्द पांडेय
पुष्ट 277 5. तत्वा सूज 9. 28. 6. ही 9.30.