SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पिन मन्दिर को पहले मनोहर पुष्पों से समाना चाहिए, भांगन में दावा सानना पाहिण, दमध्यवाएं फहराना चाहिए और मनोहर तारा भी लटकाना चाहिए। मन्दिर जी को घण्टा पामरों की जोड़ी, धूपदानी, भारती, वंश पुस्तकें और दर्श वस्त्र भी पड़ाना चाहिए तथा व्यक्तियों को मौषधिदान देना चाहिए। जो व्रतधारी ब्रह्मचारी भादि धाषक हों उन्हें दश पोतियों और दश प्राण्यानक का दान करना चाहिए । फिर वश मुनियों को षट्रस युक्त पवित्र माचर देना चाहिए । दश कटो. रियां पवित्र खीर मोर घी से भर कर दश श्रावकों के घरों में देना चाहिए। यदि इतना विधान करना या दान देना अपनी शक्ति के बाहर हो तो थोड़ा दान करना चाहिए । नाना स्वर्गों की प्राप्ति की जो माना कहानियां कही जाती है, उनके समान ही इस व्रत के पालन करने से भी प्रत्यंत पुण्य की प्राप्ति होती है (1.12)। सुगन्धदशमी कथा की भूमि कर्मों के बिनाश की युक्ति पर ठिकी हुई है। इसलिए इसका उद्देश्य भी कर्मों का खण्डन करना और सांसारिक दुःखों को खोसकर उत्तम स्वर्गादि सुखों का अनुभव प्राप्त करना है । सुगन्ध दशमी व्रत का पालन मन में अनुराग सहित करना चाहिए। इससे कलिकाल के मल का अपहरण होता है और जीव अपने पूर्व में किये हुए पापों से मुक्त होता है (2.1)। ___ सुगन्धदशमी व्रत के फल मे दृढता लाने के लिए एक पन्य कथान्तर का सर्जन किया । गया मुनिराज सुगन्ध कन्या के पूर्व भवों का कथन करते समय एक देव अवतरित हुमा उसमे स्वयं का अनुभव बताया कि उसने सुगन्धवममी बत के प्रसाद से अमरेन्द्र पद पाया (2.6)। कथा का उपसंहार करते समय भी इसका फल संदर्शन किया गया है । (28.9) इस कथा को मौलिक प्राधार व विकस के सन्दर्भ में ग. जैन सा. ने सुगम्बदशमी कथा की प्रस्तावना में पर्याप्त प्रकाश मला है। प्राकृतिक और दिव्य शक्तियों से बचने के उपाय ऋग्वेद काल के पूर्व से ही मनुष्य करता मा रहा है। महाभारत का मत्स्यगन्धा कथानक सुमन्यदशमी कथा का प्रेरक सूत्र रहा होगा। विक पीर जैन ऋषियों, मुनियों की प्रवृत्तियों एवं साधनामों में जो मौलिक मन्दर है उसका प्रभाष कथानकों के मानस पर भी पड़े बिना नहीं रहता । सुगन्धवशमी कमा में भी एक परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ता है। नायाधम्मकुहामो के सोलहवें अध्ययन में नाग को तार मुनि को कई तुम्बी का माहारदान देना और उसके फलस्वरूप अनेक जन्नों में दुल पाना भी इस प्रकार की कथा है, इसी तरह हरिमारि (750) की साववपण्यत्ति, जिनसेन (शक सं. 707-785) का हरिवंश पुराण, हरिणका बहत कथा कोस, श्रीचन्द्र का अपनश कथा कोश तथा अन्य अप्रकाशित ग्रंथों में
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy