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। पाराध्य के रंग में रंगने समता है। तब हो जाने पर ससको दुविधामा समाप्त हो जाता है पौर समरस भाव का प्रादुर्भाव हो जाता है। यहीं सांसारिक दुःखों से अस्त जीव शाश्वत की प्राप्ति कर लेता है।
निगुण सन्तों ने भी प्रपत्ति का मांचल नहीं छोड़ा । वे भी 'हरि म मिले दिन हिरवे सूपा जैसा अनुभव करते हैं और दृढ़ विश्वास के साथ कहते है'अब मोही राम भरोसों-तेरा, पोर कोन का करौं निहोरा' । कबीर और तुलसीपादि सगुण भक्तों के समान बानतराय को भगवान में पूर्ण विश्वास 'भब हम नेमि जी को शरण पौर और न मन लगता है, छोरि प्रभ के शरन'।' इस प्रकार प्रपत्त भावना मध्यकालीन हिन्दी बन पौर अनेतर काव्य में समान रूप से प्रवाहित होती रही है। उपालम्भ, पश्चाताप, लघुता, समता और एकता पैसे तत्व उनकी भाव भक्ति मे यथावद उपलब्ध होते हैं।
मध्यकाल मे सहज योगसाधना की प्रवृत्ति संतो मे देखने को मिलती है। इस प्रवृत्ति को सूत्र मानकर पानतराय ने भी भात्मज्ञान को प्रमुखता दी । उनको उज्जवल दर्पण के समान निरजन मास्मा का उद्योग दिखाई देता है। वही निर्विकल्प शुवारमा विवानन्दरूप परमात्मा है जो सहज-साधना के द्वारा प्राप्त हुमा है इसीलिए कवि कह उठता है "देखो भाई भातमराम बिराज। सापक अवस्था के प्राप्त करने के बाद सापक में मन में दृढ़ता मा जाती है और कह कह उठता है
अब हम ममर भये न मरेंगे। माध्यात्मिक साधना करने वाले बैन नेतर संतों एवं कवियों ने दाम्पत्यमूलक रति भाव का अवलम्बन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए लिया है। इसी सवर्म मे प्राध्यात्मिक विवाहों और होलियों की भी सर्जना हुई है। बानतराय ने भी ऐसी ही माध्यात्मिक होलियों का सरस चित्रण प्रस्तुत किया है। सहब बसन्त पाने पर होली खेलने का माहान करते हैं। दो दल एक दूसरे के सामने खड़े है । एक दल में बुद्धि, दया, क्षमारूप नारी वर्ग सड़ा हुमा है और दूसरे राम मे रनमयादि गुणों से सजा मारमा पुरुष वर्ग है । मान, ध्यान
1. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 214 2. वही, पृ. 124 3. हिन्दी पर संग्रह, 140 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114 5. वही, पृ. 114