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लिए इसे कर्मप्रामुख भी कहा जाता है।
इसके प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा fear प्राचार्य पुष्पदन्त है और शेष भाग की रचना बलि ने की है। समय महावीर निर्धारण के लगभग 600-700 वर्ष बाद माना जाता है । इस पर बीरसेव (सं. 873) की 72 हजार श्लोक प्रमार धवला टीका उपलब्ध है । दृष्टिबाद के ही ज्ञान प्रवाद नामक पाचवें पूर्व की दसवों वस्तु के पैज दोस नामक तृतीय प्राभूत से 'कसाय पाहुड़' की उत्पत्ति हुई जिसकी रचना गुसचर (वीर निर्वाण के 685 वर्ष बाद) ने की। इस पर वीरसेन (सन् 874) 20 हजार श्लोक प्रमाण जो जयधवला टीका लिखी उसे अधूरी रही। जिनसेन मे सं. 894 में समाप्त किया 40 हजार श्लोक प्रमाण और लिखकर इन ग्रन्थों के घाधार पर ही नेमिचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती ने वि. सं. की 11 वी शती में गोमट्सार व लम्बिसार की रचना की । पच सग्रह खबगसेठी भादि ग्रन्थ भी इसी श्र ेणी में माते हैं ।
कर्म साहित्य के ये अन्य शौरसेनी प्राकृत मे हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और सिद्धांत ग्रन्थ है जिन्हें भागम ग्रन्थो के रूप में मान्यता मिली है। इन प्रत्थों में प्रमुख है - प्राचार्य कुन्दकुन्द (प्रथमशती) के पवयसार, समयसार, नियमसार, पचत्थिकाय संगहसुत्त, दसरण पाहुड़, चारित पाहुड़, सुतपाहुड़, बोधपाहुड़, भावपाहू, आदि बट्टर (उरी शनी) का मूलाचार, शिवायं (3 री शती) की भगवइ प्राराहला, वसुनन्दी का उवासयाञ्भयरण ।
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इनके अतिरिक्त और भी विशाल प्राकृत साहित्य है । माचार्य सिद्धसेन (5-6 वीं शती) का सम्म सुत्त, नेमिचन्द सूरि का पवयण सायद्वार, धर्मदासगणी (8 वीं शती) की उवएस माला, जिनरत्न सूरि का विवेग विलास हरिभद्र सूरि का पंचवत्थुग, वीरभद्व की श्राराहणापडाया, कुमारकार्तिकेय का वारसानुवेक्ला प्राथि कुछ ऐसे प्राकृत ग्रन्थ हैं जिनसे जैन सिद्धात औौर माचार पर विशेष प्रकाश पड़ता है।
सठ शलाका महापुरुषो पर भी जैनचार्यों ने प्राकृत साहित्य लिखा है । विमलसूरि (वि. स. 530) का पउमचरिय, शीलाचार्य का असप्पन्न महापुरिसचरिय नेमिचद सूरि का महावीर चरिय, श्रीचन्दसूरि का सरांत कुमार चरिय, संवदासगण व धर्मदास मरिका वसुदवहिण्डी उल्लेखनीय है इन सभी के आधार पर कथा साहित्य की भी रचना हुई है । धर्मदासगरि का उपदेश माला प्रकरण, जयसिंह सूरि का धर्मोपदेसमाला विवरण. देवेन्द्रगरण का प्राक्खारणयमणि कोस प्रादि महत्वपूर्ण कथाकोश ग्रन्थ हैं । इसी तरह ज्योतिष, गणित, व्याकरण, कोश प्रादि विषाओं में भी प्राकृत साहित्य के अनुपम ग्रन्थ मिलते हैं ।
प्राकृत साहित्य के साथ ही हम प्रपत्र स साहित्य पर भी विचार कर सकते हैं । प्राकृत का ही विकसित रूप अपभ्रंश है। इसका साहित्य लगभग 7 वीं बसी से 16 वीं तक उपलब्ध होता है। इस बीच प्रनेक महाकाव्य और सण्डकाव्य