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जन साहित्य को araनाओं के माध्यम से सुस्थिर रहा है। प्रथम वाचना महावीर - निर्वारण के 160 वर्ष बाद मौर्य ने कराई। इसके बाद दो दुर्भिक्षों का भाघात लगा ।
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के नेतृत्व में मथुरा में वाचना हुई और इसी तरह नागार्जुन के नेतृत्व में एक अन्य areer बलभी में हुई। इन वाचनाओं के लगभग 150 वर्ष बाद (ई. 456 या 467 ) देवगिरिण क्षमाश्रमण के नेतृत्व बलभी मे पुनः वाचना का संयोजन किया गया और उपलब्ध श्रागम को वाचना, पृच्छना श्रादि के माध्यम से लिपिबद्ध कर स्थिर करने का प्रयत्न हुम्रा । श्वेताम्बर परम्परा द्वारा स्वीकृत आगम इसी बचना के परिणाम हैं। इतने लम्बे काल में श्रुति परम्परा का विच्छेद, मूल पाठों में भेद, पुनरुक्ति से बचने के लिये 'जाब यहा पण्णवरणाये' जैसे शब्दो का प्रयोग विषम प्रस्तुति मे परस्पर विसंगति, जोड़-घटाव आदि की प्रवृत्ति अंग ग्रंथों मे, दिलाई देती है । इसलिए स्वर्गीय प. वेचरदास दोषी का यह कथन सही लगता है। कि बलभी में संग्रहीत अंग साहित्य की स्थिति के साथ भगवान महावीर के समय के अंग साहित्य की तुलना करने वाले को दो सौतेले भाईयो के बीच जितना अंतर होता है उतना भेद मालूम होना सर्वया संभव है । इतना ही नहीं, देवगिरी के बाद भी यह परिवर्तन रोका नहीं जा सका । जेकोबी ने तो यहा तक कह दिया कि साक्षात् देवगिरणी के यहा भी पुस्तकारूढ किया गया पाठ श्राज मिलता श्रशक्य है। यह इसलिए भी संभव है कि भगवती आराधना आदि ग्रंथो मे उपलब्ध आगमो से उद्धृत उल्लेख वर्तमान में प्राप्त आगमो में नही मिलते । श्रट्टे पण्णत्तया मे सुयग सुम मे माहस तेरा भगवया एवमत्थं जैसे शब्द भी इसके प्रमाण हैं ।
अंग साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
1. प्राचारंग
श्राचारांग द्वादशांग का प्रथम और श्राद्य ग्रन्थ है । इसमें श्रमणाचार की व्यवस्था और उसकी मीमांसा की गई है । प्राचारांग की महत्ता इसी से प्रांकी जा सकती है कि इसके अध्ययन के उपरात ही सूत्रकृतांग श्रादि का अध्ययन किया जा सकता है । और भिक्षु भी उसके बाद ही भिक्षाग्रहरण के योग्य माना जा सकता है ।"
बुज्झिज्जति तिउट्जिा बंधणं परिजाणिया । fruit बंध वीरो किवा जाणं तिउई || सूत्र कृतांग नियुक्ति, गाथा - 18-19
जैन साहित्य में विकास, 33
निशीय चूरिंग, भाग 4. पृ. 252; 4. व्यवहार भाष्य 3. 174-5,
रखने का प्रयत्न होता पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त तदनन्तर घायं स्कन्दिल
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