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प्रत्येक दर्शन और संस्कृति की मूल रूप में एक भाषा रही है जिसके मागम से उसकी पाच मभिव्यक्ति की जाती है। जैन संसहाति प्रणेतामों में इस अमिम्मक्ति का माध्यम जनभाषा को चुना। उन्होंने ऐसी भाषा को माध्यम लाया जो उनके विचारों को जनसाधारण तथा मिर्वन और प्रशिक्षित परिवारों के बिना किसी संकोच मौर रुकावट के पहुंच सके। ऐमी भाषा संस्कृत हो नहीं सकती श्री क्योंकि वह तो उच्चकुलीन भाषा थी। इसलिए जन साधारण में प्रचलित बोली को ही उन्होंने स्वीकार किया । इसी को प्राकृत कहा जाता है। प्रादेशिक गोलियों के बीच जो स्वाभाविक अन्तर दिशा उसने प्राकृत को प्रादेशिक स्तर पर विनत कर दिया । कालान्तर में इसी के विकसित रूप को अपभ्रश कहा जाने लगा जिसको रूप अवहट्ट के दरवाजे से निकलकर प्राधुनिक भारतीय भाषाओं के विशाल प्राण तक पहुंचा । उधर संस्कृत भाषा समृट और सुशिक्षित समुदाम तक ही सीमित रही। भारतीय भाषा विज्ञान के महापिता पाणिनि ने उसे सूत्र-जालों में ऐसा कड़ दिया कि वह उनसे कभी उभर नहीं सकी । इसलिए उसमें कोई विशेड विकास भी मही हो सका।
जैनधर्म जन समाज का धर्म रहा है। वह किसी जाति पत्रमा सम्प्रदाय विमेष से सम्बद्ध न होकर प्राणि मात्र से जुड़ा रहा। इसलिए उसने एक पोर नहीं प्राकृत जैसी जनभाषा को स्वीकार किया वहीं उसे संस्कृत को भी अपनाना पड़ा। फलतः अनाचार्यों ने प्रारुत-अपभ्रश और संस्कृत को पूरे मन से अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बाद में हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, कन्नर पादि प्रादेशिक भाषामों को भी उसी रूप में अपनाया । इन सभी भाषामों का प्राध साहित्य प्रायः जैमाचार्यों से प्रारम्भ होता है। उत्तरकास में भी उन्होंने उसे भरपूर समृद्ध किया। इस तथ्य को हम प्रागामी पृष्ठों में देख सकेंगे।
1.प्राकृत साहित्य जैन साहित्य की परम्परा का प्रारम्भ श्रुति परम्परा से होता है। तीर्थकर महावीर के पूर्व का साहित्य तो उपलब्ध होता ही नहीं है। जो कुछ उस्लेख मिलते हैं उनके अनुसार उसे 'पूर्व' श्रेणी के अन्तर्गत अवश्य रखा जा सकता है । उनकी पूर्वो की संख्या बौदह है जिनका विवरण तस्वार्थपातिक, नन्दिसून प्रादि अन्यों में । इस प्रकार मिलता है।
___1. भर पूर्व- इसमें द्रव्य मोर पर्यायों की उत्पत्ति का विवेचन है। इसमें वस्तु बस, दो सौ प्रामृत और 12 करोड़ पद हैं।
___2. असायली पूर्व-इसमें वस्तु तस्त्र का प्रयानवः पर्वत, सा होगा।