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माश्यक है कि महावीर की दृष्टि में मानदे
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परिकर कुछ नहीं है। साधु के लिए यदि सीमाचारिक पवित्रा नहीं है तो कहा जा सकता है ? इसलिए तिलक, चोपडीत - बाय, सिरमुजन भादि तत्व का देश तो हो सकता है । पर जब तक उसके साथ मान्तरिक निर्मलता, निस्मता बोर बीतरायता की प्रकर्षता व हो तब तक उनका वही कहा जायेगा । तप की समृद्धि सम्यक् वर्शन ज्ञान- चारित्र की समृद्धि के बिना नहीं कही जा सकती है ।
इसी तरह उस समय धर्म का सम्बन्ध हिंसात्मक देशों से हो गया था । नरमेव श्वमेच यादि यशों में साथ सामग्री की बाहूति एक साधारण प्रक्रिया भी । महावीर ने ऐसे यज्ञों का विरोध किया और मूक पशुओं की बलि को व्यर्थ सिद्ध किया | उसके स्थान पर दुष्कर्मों की बलि देने की बात कही। इससे गरीब जनता की खाच सामग्री उपलब्ध हो सकी तथा पशुहिंसा कम हो गई।
महावीर की अहिंसा जीवन को सुव्यवस्थित करने वाली महिला थी । मैत्री, कररणा, मुदिता और उपेक्षा की ग्राहसा थी। इस महिसा मे राजनीतिक युद्ध की waterfinar को सिद्ध किया गया था। ये युद्ध अपने तथाकति स्वार्थं धर्षवा बड़प्पन की बनाये रखन के लिए मानवता पर क्रूर दलन था। इसलिए महावीर ने अनाक्रमण की बात कही । मतिक्रमण और माक्रमण दोनों तस्व युद्ध के ही दो पहलू हैं। यदि इन तत्वों से विमुख रहकर व्यक्ति और समाज के प्रभ्युस्थान की प्रार ध्यान दें तो उसकी वास्तविक सचेतनता कही जानी चाहिए। इसका तात्पर्य बह भी नहीं कि वह प्रस्मा क्रसरण करे ही नहीं या कायर बना रहे। प्रत्याक्रमण के लिए यदि वह विश किया जाये तो पूरी शक्ति के साथ उसका प्रतिरोध करना भी उतनी ही कर्तव्य परायणता कही जायेगी। बस, हिसा की मनिवार्यता में करुणा की माता सन्निहित रहनी चाहिए। इसलिए यह महिंसा कायरों की नहीं, वीरों की after है; वाश्वि-ग्रन्थ की नहीं, उत्तरदायित्वपूर्ण की महिमा है ।
महिला के साथ परिग्रह की भी बात जुड़ी हुई है। परिग्रह साधारण वोर पर बिना सोक्स के नहीं हो सकता । प्रावश्यकता से अधिक का सग्रह करना
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माता की दृष्टि से दूर भागना है। साथ ही जो भी सग्रह किया जाये यह भी न्यायपूर्वक हो । मन्तर परिग्रह है मूर्च्छा या पासक्ति तथा बाह्य परिवह है तिमी मानसिक शरिय से मुक्त होना अपरिग्रही वृति के लिए आवश्यक है। अतः इच्छा-परिमाण तथा वस्तु-परिवारा ये अपरिग्रह की वो सही दिखाएं है व्यावहारिक और व्यापारिक भ्रष्टाचार भी प्रसंग्रह की भावना से दूर हो सकता है। इस प्रकार दीर्थंकर महावीर ने राजनीतिक, सामाजिक और माध्यामिक आन्त्रि के तीन सूत्र दिवे-शि-नाति और