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"म समापस जानना पाहता है। बानो, हम सब एक जुट होकर इस तिको मायमार।
पा राष्ट्रव्यापी प्रन्यापार की बात दिमाग में अपनी तो कराह उठता है सब कुछ कह देने को । लगता है जो एक तमिलनाकी की तय उसे न निगला जा सकता है और न उमला जा सकता है। उगलने से ससाई बामने भायेकी सो विद्रप विशेषी । और निगला इसलिए नहीं जा सकता कि उसको पचाना माज की कामक प्रातिशीन नारी के लिए सरल नहीं होना । प्राकृतिक पुष्टि के निगलो की प्रपेना उमदना निमित्रस ही बहतर होता है।
वाज माम मादमी छोराहे पर खड़ा है। जैसे वह चाह में फंस गया हो । जिस रास्ते पर भी वह दृष्टिपात करता है वह उसे स्वच्छ और उन्मुक्त नहीं दिखाई देता। तथाकषित पषिक महाजन रिन की टिकियां से धूले बभ्र वस्त्रों से ढके प्रबश्य दिखते है पर उनके कृत्वों को उघाड़ा जाये तो जनसे अधिक कृष्ण वर्ण का कोई पौर नहीं मिलेगा । ऐसे ही 'बमुला भगत' नेतामों से माज का समाज संत्रस्त हो गया है। उनकी कथनी और करनी मे कोई एकरूपता नही । हर क्षेत्र इस केंसर से बुरी तरह पीड़ित है । पाश्वर्य यह है कि हर आदमी जानता समझता हुमा भी इसे शिर पर लाये बेतहासा दौड़ रहा है। उसे सुनने की भी फुरसत नहीं । कदाचित् इसलिए कि कही इस दौड़ में वह पीछे न हट जाये । मात्र 'मलता है' कहकर वह मामे बढ़
पर इतना कहने मात्र से क्या होगा ? यदि हमने इस उलझन भरे समास पर मिसन मनान नहीं किया तो समाज में भटकाव बढ़ता ही जायेगा । उसे फिससस से बचने के लिए कोई मामय नहीं सिनेमा । अतः माल पावस्याला है उस विय पता को समाप्त करके सोवयं लाने की बौर मह सौन्दर्य जीवन-रथ का दूसरा पहिया भी मा सकता है। पर्याद महिलाएं विषमता में समता और सौन्दर्य लाने का कार्य को सुमार, सक्षमता और सहदयबा के साथ कर सकती हैं। उनकी प्रतिमा कोमलता और बाकृत बक्ति परिवार को हरा-भरा करने से नही पड़ा प्रिय हो वही है। रव्यावहारिक कठिनाइयां समापी पर उन्हें अस्ले सारख पौर महनील समानकर मार्म को, निबंटा लाया जा सकता है।
और
मत गटई और उसकी बहन मालमत भारत का महिनाएं सिर नहीं मा जानकी