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हमारे सामने पा रहा है वह पूर्व युगों से कही पनि संकर है । उसके इस रूप को दूर करना हमारा कर्तव्य है ।
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कोर पोर उत्तम बनाने में अधिक मा करता है। बचों के लाभ मुल्यवर्ग की भीक्षा वै कर रहा करती है । इसलिए संस्कारों की भूमिका जितनी सकती है उतनी ger नहीं । साज के बालक कल के समृद्ध नागरिक हैं। इसलिए उन्हें सही नागरिक बनाने का समूचा उत्तरदायित्व नारी वर्ग का है।
महिनामों का मोक्षन कि समय पुलि सुन्दर नारी बना
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आज के युवा वर्ग में कर्तव्य बोध की भावना कम होती चली जा रही है जो एक चिन्ता का विषय है। इसका भी उत्तरदायित्व हमारा ही है । हम उसे मादर्शनिष्ठ वातावरण नहीं दे सके जिसमें वह सुसंस्कारित हो सके। वातावरण वस्तुतः विया नहीं जाता, बन जाता है। वहां कृत्रिमता या बनावटीपन नहीं होता, स्वाभाविकता होती है । जीवन कृत्रिमता से प्रोतप्रोत रहेगा तो सारा वातावरण संदिग्ध, प्रविश्वस्त और छल कपटमय बना रहेगा ।
हम स्वयं अभी तक चेते नहीं और न चेतना चाहते हैं। हम स्वयं न जीते हैं मौर न जीना चाहते है। जीते तो सभी हैं। छोटे-छोटे प्राणी भी अपना जीवन यापन कर लेते हैं । परन्तु जीने के ढंग में अन्तर है। हमने जीने के ढंग को या तो समझ नहीं पाया या कदाचित समझ पाया हो तो उस पर अमल नहीं कर पाया । हम बहुत सो चुके हैं, युगों-युगों से सोते बले ना रहे हैं। ऐसा लगता है, कुम्भकरण की निद्रा का असर अभी भी है। दुनियां इतनी आगे बढ़ रही है पर हम आज भी अपनी अन्ध परम्परामों में गुमे हुए हैं। परम्पराम्रों के निर्माण में परिस्थितियाँ कारण बनती हैं । परिस्थितियां बदल जाती है पर परम्परायें बदलती नहीं बल्कि विकृत होती जाती हैं यदि उनके साथ विवेक न रहे ।
बोकी
इन परम्परानों में विधवा विवाह न करने की परम्परा पर विशेष मन्मन four जाना mrateक है । वह महिला जो संसार का कुछ भी नहीं देख सकी और कि शादी के थोड़े समय बाद ही जीवन साथी के वियोग को प्रसह्य कुठाण्यात सहना पड़ा अपना सारा जीवन निरापद रूप से कैसे व्यतीत कर सकती है ?
बोकिल उसका सारा
जीवन दुस्सा हो जाता है। परिवार के सारे सव है। यह भी दीन-हीन बनकर अपना समय या जाती उसके बारों और सती रहती हैं । फ - हो जाने पर यह रस्म के लिए भी चित्र हो जाती है। इसमे
की विकास
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