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ioi पापमान की योग्यता का कोई नियम नहीं है। प्रतः स्त्रियां सप्तम् मरक कायम होने पर भी समान के योग्य हो सकती
पोक्त यापनीय लोबलु इत्थी अजीको (प्र.पजीवे) पानि माया, रण यावि देसविरोहिणी (प्र."विराहिली), सो प्रमाणुसा, यो प्रणारि उप्पत्ति, सोमवाउया, सो प्रहरी, हो रण उक्सन्तमोहा, को ख मुखाबारा, सो बसुनवादी, रखो बक्सावाविया, स्लो मधुमकरण विरोहिणी, सो बस्तारण
रहिया, गो माजोग्या लडीए, वो अकल्माण मायणं ति कहं न उसमधम्मलिग सिमर्थात् जैसे कि मापनीय शास्त्र में कहा गया है कि "स्त्री कोई पीवो
है नहीं, फिर वह उत्तम धर्म मोक्ष कारक पारित धर्म की साधक क्यों नहीं हो सकती ? वैसी ही वह मध्य भी नहीं है, वसंत गिरोषी नहीं है, अमनुष्य नहीं है, अनार्य देशोत्पन्न नहीं है, असंख्य वर्ष की प्रायु वाली नहीं है, प्रति कर मतिकाती नहीं है, मोह प्रशांत हो ही न सके ऐसी नहीं, वह खुद मापार से खून्य नहीं है, मधुब सरीर वाली नहीं है, परलोक हितकर प्रवृत्ति से रहित नहीं है, अपूर्वकरस की विरोधी नहीं है, नौ गुण स्थानक (घठवें से चौदहवें तक) से रहित नहीं है, लधि के प्रयोम्प.हीं है, मकल्याण की ही पात्र है ऐसा भी नहीं है फिर उत्तम धर्म की साधक स्वों नहीं हो सकती ?"
नन्दिसूत्र, प्रज्ञापना, शास्त्रवार्ता-समुच्चय प्रादि श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी इस विषय की पर्याप्त मीमांसा की गई है और मल्लि को तीर्षकर बताकर यह स्पष्ट किया गया है कि नारी भी शारीरिक और माध्यात्मिक विकास की पूर्ण मषिकारिणी है। उनके अनुसार वस्त्र प्रहण से वीतराग की कोई हानि नहीं होती मन्यथा पीछी, दवा, भोजन आदि भी इसी श्रेणी में भा जायेगा प्रतः वस्त्र को मारी की मुक्ति प्राप्ति में बाधक नहीं माना जा सकता।
इसके बावजूद यह माश्वर्य का विषय है कि श्वेताम्बर परम्परा नारीको दृष्टिवाद के अध्ययन की भधिकारिणी नहीं मानती। 'दृष्टिवाद', बैसा हम जानते है, तात्कालिक प्रचलित परम्परामों, दर्शनों मोर साधनामों का मीमांसक संग्रह रहा है इसलिए उसका दुरूह और बटिल होना स्वाभाविक है। परम्परा से चूकि नारी वर्ग शारीरिक और मानसिक दुर्बलतामों का पिण्ड मानी गयी है इसलिए उसे दष्टि पाप जैसे दुर्वोष मागम अन्य के अध्ययन करने से दूर रखा गया है । इस सन्दर्भ में दो परम्परा है-प्रथम परम्परा का सूत्रपात जिनभद्रगणि ममाषम में किया है बिनके भनुसार दृष्टिवाद के समय के निषेध के पीछे नारी के तुगत, पानमान,
1. सलित विस्तरा पृ. 400