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________________ ४] चौथा अध्याय है इसलिये दोनों एक ही साथ प्रकट होना चाहिये(१) । पहिले पीछे कौन होगा ? [ख ] सूत्रा में केवलज्ञान और केवलदर्शन को सादि अनंत कहा है । अगर ये उपयोग क्रमवर्ती होंगे तो दोनों सादि सान्त हो जायेंगे (२) (ग) सूत्र में केवली के ज्ञान दर्शन एक साथ कहे(३) हैं । . (घ) यदि ये क्रमसे होंगे तो एक उपयोग दुसरे उपयोग का आवरण करनेवाला हो जायगा । (ङ) जिस समय केवली देखेंगे उस समय जानेंगे नहीं, इसलिये उपदेश देने से अज्ञात वस्तु का उपदेश देना कहलायगा । (च) वस्तु सामान्यविशेषात्मक है किन्तु केवलदर्शन में विशेष अंश छूट जानेसे और केवलज्ञान में सामान्य अंश छूट जाने से वस्तु का ठीक ठीक ज्ञान कभी न होगा। इत्यादि अनेक आशंकाएँ हैं(४)। येही सब आक्षेप अभेदो (१) केवलणाणावरणक्खयनायं केवलं जहाना । तह दंसणं पि जुम्जइ णियआवरणक्खयस्संते । स० प्र० २.१० । (२) केवलणाणी णं पुच्छा गोयमा सातिए अपज्जवसिए । पण्णवणा-१८-२४१ (३) केवलनाणुवउत्ता नाणन्ती सवभावगुणमावे । पासंति सबओ खलु कंवलदिट्ठीहि थे ताहिं । विशेषावश्यक ३०९४ टीका। (४)इस समग्र चर्चा के लिये सम्मतितर्क प्रकरण का दसस काट देखना स्वाहिये । गुजरात विद्यापीठ से प्रकाशित सम्मति तर्क में टिप्पणी में इस विषय की प्रायः समग्र गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। संस्कृतज्ञों को स्पष्टता के लिये जाग मोदय समिति रतलाम के सटीक नन्दीसूषके १३६ पत्र से देखना चाहिये अथवा विशेषावश्यक गाथा ३०९१ से देखना शुरू करना चाहिये । यहाँ स्थानाभावसे इन सब ग्रन्थों के अवतरण नहीं दिये जा सकते ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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