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________________ ८२) चौथा अध्याय यद्यपि उस में पीछे से भी बहुत मिलावट हुई है फिर भी जिस बात को श्वेताम्बरों के पुराने आचार्य भी सूत्र साहित्य की पुरानी बात कहते हैं उसे सभी आचार्यों के मतसे पुराना मत समझना चाहिये । उपयोग के विषयमें जैन शास्त्रोंका मतभेद जैनदर्शन में उपयोग के दो भेद किये गये हैं । एक दर्शनोपयोग, दूसरा ज्ञानोपयोग । प्रचलित मान्यता के अनुसार वस्तुके सामान्य प्रतिभास को दर्शन कहते हैं और विशेष प्रतिभास को ज्ञान कहते हैं । जानने के पहिले हमें प्रत्येक पदार्थ का दर्शन हुआ करता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आगम ग्रन्थों के अनुसार सर्वज्ञ भी इसी क्रम से वस्तु को जानते हैं, पहिले उन्हें केवलदर्शन होता है पीछे केवलज्ञान होता है । इस विषय में जैनाचार्यों के तीन मत हैं। १ केवलदर्शन पहिले होता है, केवलज्ञान पीछे ( क्रमवाद) २ दोनों साथ होते हैं ( सहोपयोगवाद ) ३ दोनों एक ही हैं ( अभेदवाद ) पहिला मत ( क्रमवाद ) प्राचीन आगमग्रन्थों का है, जिस का वर्णन भगक्ती, पण्णवणा आदि में किया गया है। इसका वर्णन 'हे भदन्त ? केवली जिस समय रत्नप्रभा पृथ्वी को आकार से हेतु से उपमा से....... जानते हैं, क्या उसी समय देखते हैं ? गौतम, यह बात ठीक नहीं है ?"
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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