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________________ प्रस्तावना --- जैन-धर्म-मीमांसा का प्रथम भाग निकलने के सवा चार वर्ष बाद उसका दूसरा भाग निकल रहा है । इस भाग में मीमांसा के चौथे और पाँचवें अध्याय हैं, जिनमें ज्ञान की आलोचना की गई है जैन समाज में मीमांसा के जिस अंश के द्वारा सब से अधिक क्षोभ हुआ है वह इसी भाग में है I f जैनशास्त्रों की प्रणाली इतनी व्यवस्थित रही है कि उसे वैज्ञानिक कहा जा सकता है, जैनियों को इस बात का अभिमान भी है, मुझे भी एक दिन था। पर जैन जनता इस बात को भूल रही है कि वैज्ञानिकता जहां गौरव देती है वहां हरएक नूतन सत्य के आगे झुकने का विनय भी देती है, निष्पक्षता भी देती है। जिस में यह विनय और निष्पक्षता न हो उसे वैज्ञानिकता का दावा करने का कोई अधिकार नहीं है । आज तक के जीवन का बहुभाग मैंने जैनशास्त्रों के अध्यापन में बिताया है । पिछले चार वर्ष से ही इस कार्य से छुट्टी मिली हैं | इस लम्बे समय में प्रारम्भिक लम्बा काल ऐसा बीता जिसमें मैं जैनधर्म का प्रेमी नहीं, मोही था । मैं चाहता था कि जैनधर्म को ऐसा अकाट्य रूप दूं जिसका कोई सके और इस रूप को देखकर नास्तिक व्यक्ति भी वैज्ञानिक सचाई के आगे झुक जाय । I खंडन न कर जैनधर्म की
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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