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________________ चौथा अध्याय थे, जैनधर्म आदि कोई धर्म नहीं था। इससे मालूम होता है । जैनशास्त्रों में उत्सर्पिणी का विभाग धर्मकी अपेक्षा नहीं था अन्य विषयों में तो आज अवसर्पिणी नहीं कही जा सकती । इस विषय में भविष्य बोलनेवालों को बड़ा सुभीता है। अगर उत्सर्पिणी कहदें तो वह किसी दृष्टि से सिद्ध की जा सकत है और अवसर्पिणी कहदें तो वह भी किसी दृष्टि से सिद्ध की जा सकती है । और जिस दृष्टि से अपनी बात सिद्ध हुई उस पर जोर देना तो अपने हाथ में हैं। यदि थोड़ी देर के लिये दृष्टिभद की बात को गौण कर दिया जाय तो भी यह कहने में काई कठिनाई नहीं है कि मनुष्य समाज विक्रप्सिन होता जाता है या पतित । जीवन के पच्चीस पन्नास वर्ष तक जिसने समाजका अनुभव किया है वह भी बता सकता है कि समाज उन्नतिशील है या अवनतिशील, उसी पर से भविष्य और भूत का सामान्य अनुमान भी किया जा सकता है । इस साधारण ज्ञान के लिये सर्वज्ञ मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । शास्त्रों की भविष्यकाल की बातों को पढ़कर हँसी आये बिना नहीं रहती । उसमें छोटे छोटे राजाओं का और छोटी छोटी घटनाओं का वर्णन तो मिलता है परन्तु बड़ी बड़ी घटनाओं का वर्णन नहीं मिलता । यूरोप का महायुद्ध कितना विशाल था, जिस की बराबरी दुनियाँ का कोई पुरोना युद्ध नहीं कर सकता, मुगल साम्राज्य और बृटिश साम्राज्य आदि कितने महान हुए, इनका कुछ उल्लेख नहीं है। क्या इससे यह मालूम नहीं होता कि ग्रन्थकारों को अपने
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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