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________________ ६८ ] चौथा अध्याय इतने वक्तव्य से इस युक्तयाभास की चर्चा पूरी हो जाती है । पर कुछ और भी विचारणीय बातें कह देना अनुचित न होगा । जैन शास्त्रों को देखने से मालूम होता है कि ज्ञेय की अपेक्षा ज्ञान में अविभाग प्रतिच्छेदों की अधिक जरूरत है । जैन शास्त्रों के मतानुसार ज्ञेय में जितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं ज्ञान में उससे अनन्तगुणें अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । अविभाग प्रतिच्छेदों के विचार से यह बात मालूम होती है । निगोद प्राणी का ज्ञान सबसे थोड़ा है पर सबसे थोड़े ज्ञान के लिये भी कितने अविभाग प्रतिच्छेदों की जरूरत है इसका वर्णन पढने योग्य है । जीवराशि अनन्त है, उस राशि में जीवराशि का गुणा करो, उसमें फिर उस अनंत का गुणा करो, इस प्रकार उस जीव राशि में अनन्तवार अनन्त का गुणा करो अर्थात् वर्ग करो तब पुद्दल परमाणुओं की राशि आयगी । इस पुद्गल राशि में पुद्गल राशि का अनन्तवार वर्गरूप में गुणा करो तब कालके समय आयेंगे, फिर उसमें अनन्त का वर्ग करो तब आकाश श्रेणी होगी उसका वर्ग करने पर आकाशप्रतर आयगा उसका अनन्तवार वर्ग करने पर धर्म अधर्म के अगुरुलघु गुण के अविभाग प्रतिच्छेद आयेंगे, उसमें अनंत वार वर्ग करने पर एक जीव के अगुरुलघुगुण के अविभाग प्रतिच्छेद आयेंगे उसमें अनन्तवार वर्ग करने पर सूक्ष्म निगोद के जघन्य ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद आयेंगे । ( गोम्मटसार जीव कोड टीका पर्याप्त प्ररूपणा )
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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