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________________ ': अबधिज्ञान [४०१ कि वहाँ के किन्हीं खास तरहके परमाणुओंसे उस अबधि इन्द्रियकी रचना हुई है, जिनपर दूसरे क्षेत्रके परपाणुओंका ( विजातीय होनेसे) असर नहीं पड़ता। कोई कोई अवधिज्ञान निकटके पदार्थको नहीं जानता और दूसरे पदार्थको जान लेता है । यह बात आँखमें भी देखी जाती है। वह आँखसे लगे हुये पदार्थको नहीं देखपाती और दूसरे पदार्थको देख लेती है । रेडियोयंत्र पर अमुक प्रकारके दूरके शब्दों का ही प्रभाव पड़ता है और साधारण बोलचालके शब्दोंका प्रभाव नहा पड़ता, आदिके समान अवधि इन्द्रियमें भी विशेषताएँ हैं । कोई कोई आचार्य सम्यग्दृष्टि के अवधिज्ञान में अवधिदर्शन मानते हैं, मिथ्यादृष्टि को अवधिदर्शन नहीं मानते । परन्तु यह बात युक्ति-संगत नहीं मालूम होती, क्योंकि ज्ञानके पहिले दर्शन अवश्य हाता है । अगर दर्शन न हो तो कोई दूसरा ज्ञान होता है । मिथ्या दृष्टि को जो विभंग-ज्ञान होता है, उसके पहिले अगर दर्शन न माना जाय तो कोई दूसरा ज्ञान मानना पड़ेगा । ऐसी हालत में अवधिज्ञान प्रत्यक्षज्ञान नहीं कहला सकता। विशेषावश्यककार भी यह बात स्पष्ट शब्दोंमें कहते हैं कि अवधिज्ञान और विभंगज्ञान दोनों के पहिले अवधिदर्शन (१) समान होते हैं। इसलिये मिथ्यादृष्टि के भी अवधिदर्शन मानना आवश्यक है। (१)- सविसेसं सागारं तं नाणं निव्विसेसमणगारं । त दंसणति ताई ओहि विमंगाण तुल्लाई । ७६४ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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