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________________ श्रुतज्ञान के भेद [ ३७५ चूलिका। पूर्वसाहित्य का पाँचवाँ भेद चलिका है । परिकर्मस्त्र पूर्वगत और प्रथमानुयोग में जो बातें कहने से रहगई हैं उनका कथन चूलिका में (१) है । ग्रन्थमें जैसे परिशिष्ट भाग होता है, उसी प्रकार दृष्टिवाद में चलिका है । कहा जाता है कि चौदह पूों में सिर्फ पहिले चार पूर्वी में ही चलिश है । पहिले पूर्व की चार, दूसरे की बारह, तीसरे की आठ, चौथे की दस चलिकाएँ हैं। परिकर्म सूत्र और प्रथमानुयोग की भी चूलिकाएँ होगी परन्तु उनका पता नहीं हैं कि वे कितनी थीं। दिगम्बर ग्रन्थों में किस पूर्वकी कितनी चलिकएं हैं, इसका वर्णन नहीं हैं, परन्तु वहां चलिकाके पांच भेद किये गये हैं: जलगता-इसमें जल अग्निमें प्रवेश करने, स्तंभन करने आदि का वर्णन है। स्थलगता-इसमें शीघ्र चलना, मेरु आदि की चोटीपर पहुंचना आदि का वर्णन है। मायागता--इन्द्रजाल आदिका वर्णन है। रूपगता-इसमें अनेक रूप बनाने का, चित्र आदि बनाने का वर्णन है। (१) दिट्ठिवाए जं परिकम्म सुत पुव्वाणुयोगे न मणिय तं चूलासु भणियं । नंदी ५६। (१) ता एव चूला आइल्ल पुवाहं चउण्यं चुछ वणि मणिता ' चत्तारि दुवालस अट्ट चैव दस चैव चूलवत्थूणि आइलाष चउण्हं सेसाणं चुलिया नस्थि । नंदी टीका ५६॥ -
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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