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________________ जांब तो संदेह निश्चय में परिणत हो जाता है। जैसे अकलंक की कथा में अकलंक निष्कलंक, मंत्री के पुत्र बताये जाते हैं, जबकि राजर्तिक में वे अपने को लघुहन्व नृपति के पुत्र कहते हैं, अपने लिये प्राण-समर्पण करने पर भी वे निःकलंक का कही नाम भी नहीं लेते, इसके बाद तारादेवी के साथ शास्त्रार्थ से यह कथा इतिहास के बाहर चली जाती है और कई कारण इस कथा की अप्रामाणिकता को निश्चित करते हैं। कभी कभी उपदेश देने के लिये व्याख्याता कुछ कथाएं कह जाता है; वहाँ यह देखना चाहिये कि वक्ता का मुख्य लक्ष्य क्या है ? जैसे महात्मा बुद्ध बाह्य तप आदि की निःसारता बतलाने के लिये कहते हैं कि मैने पहिले जन्मोंमें सब प्रकार के बाह्य तप किये हैं आदि । यहाँ यह न समझना चाहिये कि म. बुद्धने सचमुच पहिले जन्मोमें बाह्य तप किये हैं, इसलिये जिन जिन सम्प्रदाय के तप किये हैं, वे सम्प्रदाय पुराने हैं। इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि महात्मा बुद्ध के समय वे सम्प्रदाय प्रचलित थे और उनकी बाह्य तपस्याओं को महात्मा बुद्ध ठीक नहीं समझते थे । कहीं कहीं आलंकारिक वर्णन कथाओं का रूप धारण कर लेते हैं । जैसे वैदिक पुराणों में एक कथा है कि अमिने अपनी माता को पैदा किया। यह असंभव वर्णन ऋग्वेद (१) के एक रूपक का रूपान्तर है । वैदिक शास्त्रोंके अनुसार. यज्ञ के धुएँ से १९) क इम वो निण्यता चिकेत वत्सो मातृर्जनयत स्वधामिः । बहाना मी असामुपस्थान् महान् कविनिवरति स्वधावान् ।' ऋग्वेद म० १.०९५ लोक।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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