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________________ श्रुतज्ञान के मेद कि जिस प्रकार अक्षर के ऊपर बिन्दु श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार जगत् और रुतलाक में जो सार अर्थात् सर्वोत्तम है वह लोकबिन्दुसार (१) है । परन्तु नन्दी के इस वक्तव्य से इस पूर्व के विषय का ठीक ठीक पता नहीं लगता। तत्त्वार्थ राजवार्तिककार [२] कहते हैं कि इसमें आठ व्यवहार, चार बीज, परिकर्मराशिक्रियाविभाग इस प्रकार सर्वश्रुतसंपत् का उपदेश है।' इससे मालूम होता है कि इसमें गणित की मुख्यता है, और इसमें भूगोल खगोल आदि का भी वर्णन आ गया है। यद्यपि दृष्टिवाद के प्रथमभेद परिकर्म में भी इस का वर्णन है तथापि वहाँ पर वह उतना ही है जिससे पूर्व साहित्य में प्रवेश हो सके । यहाँ पर कुछ विशेषरूप में है। पिछले पाँचपूर्व लौकिक चमत्कारोंके लिये विशेष उपयोगी हो सकते हैं । ऐसा मालूम होता है कि इन पूर्वो को पढ़ने से अनेक मुनि ख्याति लाभ पूजा आदि के प्रलोभन में फंसकर भ्रष्ट हुए थे, इसलिये मिथ्यादृष्टियों को पिछले पाँच पूर्व नहीं पढ़ाये जाते । मिथ्यादृष्टियों को ग्यारह अंग नव पूर्व तक का ही ज्ञान हो सकता है, इस प्रकार जो जैनशास्त्रों की मान्यता है उस का यही रहस्य है। यह मतलब नहीं है कि मिथ्यादृष्टियों में पिछले पाँच पूर्व पढ़ने की - (१) लोके जगतिश्रुतलोके च अक्षरस्योपरि बिन्दुरिवसारं सात्तम सर्वाक्षरसन्निपातलब्धि हेतुत्वत् लोकानेन्दुसारं । सूत्र ५६ (२) यवाष्टो व्यवहाराश्चत्वारि बोजानि परिकर्मराशिः क्रियाविभागश्च सर्वश्रुतसम्पदुपरिष्टा तत्खलु लोकबिन्दुसारं । १.२०.१२
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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