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________________ तज्ञान के भेद नंदीसूत्र और उसके टीकाकार का कथन है कि प्रारम्भके छः परिकम तो अपने सिद्धान्त के अनुसार हैं और चुआधुमसेणिमा सहित सात परिकर्म आजीविक (१) सम्प्रदाय के अनुसार हैं । जैन मान्यता में चार (२) नय हैं। संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, और शब्द । नैगम नय का संग्रह और व्यवहार में समभिरूढ़ और एकभूत का शब्द नय में अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये जैन मान्यता चतुर्नयिक कहलाती है । आजीविक लोग त्रैराशिक (३) कहलाते हैं क्योंकि ये सब वस्तुओं को तीन तीन भेदों में विभक्त करते हैं। नय भी इनके मत में तीन हैं:-द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक उभयास्तिक । इससे मालूम होता है कि पहिले आचार्य नय चिन्तामें आजीविक मत का अवलम्बन लेकर सातों ही परिकर्म तीन प्रकार के नयों से विचारते थे।' १) छ चउकनइआई सत्त तेरासियाई सेतं परिकम्मे । नन्दीसूत्र ५६ । सप्तानाम् परिकर्मणामाद्यानि षट् परिकर्माणि स्तसमयवक्तव्यतानुगतानि स्वसिद्धान्तप्रकाशकानि इत्यर्थः । ये तु गोशालपवक्षिा आजीविकाः पाखंडिनस्तन्मतेन च्युताच्युतश्रेणिका षट्परिकर्मसाहिता तानि सप्तापि परिकमाणि प्रलाप्यन्ते । .. (२) नेगमो दुविहो-संगहिओ असंगहिओ य । तस्थ संगहिओ संगहं पविट्ठी असंगहिजओ ववहारं, तम्हा संगही बहारो उज्जुसओ सहाइआ य एक्को, एवं चउरो नया एहि चाहिं नाहि छ ससमहगा परिकम्मा चितिजति । बन्दीचूर्णि ५६ । (३) ...त एव . गोशालप्रवर्तिता आनीविकाः पाखण्डिनराशिका उच्चन्थे । कस्मादिति चेदुच्यते, इह ते सर्व वस्तु प्रयात्मकान्ति तथथा जीवोजीबो जीवाजीच, लोका अलोका लोकालोकाय, सदसलदसत्, नयचिन्तायामपि त्रिविधं नयमिच्छन्ति तयथा द्रव्यास्सिक पर्यायास्तिकं उभवास्तिर्क
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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