SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४] पाँचवाँ अध्याय वाले विवादों का वर्णन था और उस में प्रायः सभी विषयों पर चर्चाएँ थीं। उपलब्ध प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेव इस अंग का नाम 'प्रश्नव्याकरणदशा' भी बतलाते हैं। उनका कहना है कि कही कहीं 'प्रश्न व्याकरण दशा, यह नाम भी देखा(१) जाता है। परन्तु यह नाम ठीक नहीं मालूम होता और अर्वाचीन मालूम होता है । अन्तकृद्दशा सूत्र के वर्णन में मैंने बतलाया है कि दश अध्ययन होने से 'दशा' लगाना ठीक नहीं मालूम होता। अगर कदाचित हो भी तो यह निश्चित है कि प्रश्नव्याकरण के दश अध्ययन अर्वाचीन हैं इस बात को स्वयं अभयदेव भी स्वीकार करते हैं । इसलिये प्राचीन समय में इस अंग के साथ 'दशा' यह प्रयोग कदापि संभव नहीं है। ११-विपाकसूत्र-इस अंग में पुण्यपाप का फल बताया जाता है । जिन लोगों ने महान् पाप किया है उसके दुष्फल की कथाएँ और पुण्यशालियों के सुफल की कथाएँ इस अंग में हैं । वर्तमान में दस कथाएँ पुण्य फल और दस कथायें पाप फल की पाई जाती हैं। १२-दष्टिवाद-इस अंग में सब मतों की खास कर ३६३ मतों की आलोचना है । सच पूछा जाय तो जितना जैनागम है उस सबका संग्रह इस अंग में है । उस समय की जितनी विद्याएं जैनियों को मिल सकी, उन सबका किसी न किसी रूप में इसमें (१) क्वचित्प्रश्नव्याकरणदशा इत्यपि दृश्यते । . -
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy