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________________ ३२२] पाँचवाँ अध्याय पूज्या हो सकती थी परन्तु श्राविका रहकर आदरणीया नहीं हो सकती थीं। इसलिये आठवें अंगमें लियों के चरित्र आये क्योंकि वे मुक्तिगामिनी आर्थिकाओं के चरित्र थे, परन्तु श्राविकाओंके चरित्र न आये ।' परन्तु यह समाधान सन्तोषप्रद नहीं है। जैन साहित्य से इसका मेल नहीं बैठता। क्योंकि श्राविकाओं का भी जैनसाहित्य में सादर वर्णन किया गया है। और जब वे स्त्रीसंघ की नायिका के पद पर बैठ सकतीं हैं तो उनके वर्णन में आपत्ति के लिये ज़रा भी गुंजाइश नहीं है । हां, निम्नलिखित कारण कुछ ठीक मालूम होता है। जैनधर्म में सीपुरुष के हक बराबर रहे हैं। राजनैतिक दृष्टि से स्त्रियों के अधिकार भले ही समाजमें नीचे रहे हों, परन्तु जैनधर्म उस विषमताका समर्थक नहीं था । यह बात दूसरी है कि उसके कथासाहित्य में स्वाभाविक चित्रणके कारण विषमता का चित्रण हुआ हो, परन्तु धार्मिक दृष्टि से वह समताका ही समर्थक रहेगा। इसलिये जो महाव्रत मुनियों के लिये थे, वे ही आर्यिकाओं के लिये भी थे । इसी प्रकार जो अणुव्रत श्रावकों के लिये थे वे ही श्राविकाओं के लिये भी थे। मुनि और आर्यिकाओं की बराबरी तो निर्विवाद मानी जा सकती है। उसका सामाजिक नियमों से संघर्ष नहीं होता। परन्तु श्राविकाओं के विषय में यह नहीं कहा जा सकता । श्रावक तो सैकड़ों सियों को रख कर भी ब्रह्मचर्याणुव्रती कहलाना चाहता है और क्यासेवन करके सिर्फ अणुव्रत में अतिचार मानना चाहता है, न कि अनाचार; जवः कि. श्राविकाके लिये बहुत ही कठोर शर्ते हैं। जैनधर्म इस विषमता का समर्थन
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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