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________________ श्रुतज्ञान के भेद ! २९ है । यदि कथा शब्दका कहानी अर्थ भी किया जाय तो भी कुछ विशेष हानि नहीं है । उस र मय 'णायधम्मकहा' का अर्थ होगा, ऐसी धर्मकथाएँ जो दृष्टान्तरूप हैं । परन्तु इसमें कुछ पुनरुक्ति मालूम होने लगती है । इसलिये 'कथा' का अर्थ 'कथन' किया जाय, यही कुछ ठीक मालूम होता है। ये कथाएँ प्रायः कल्पित हैं। कई कथाएँ बिलकुल उपन्यासोंकी तरह हैं, जैसे मल्लि आदि की कथा । कई ऐतिहासिक उपन्यासोंकी तरह हैं, जैसे अपरकंका आदिकी कथा । कई हितोपदेशकी कथाओंकी तरह हैं जैसे दो कच्छपों की । कई को कथा न कहकर सिर्फ छोटासा दृष्टान्त ही कहना चाहिये, जैसे तूमड़ीका हट्ठा अध्ययन आदि। इससे यह बात अच्छी तरह मालूम हो जाती है कि कथाएँ कोई इतिहास नहीं है किन्तु उपदेश देने के लिये कल्पित, अर्धकल्पित और कोई कोई अकल्पित उदाहरणमात्र हैं। इनकी सचाई घटनाकी दृष्टि से नहीं किन्तु आशयकी दृष्टि से है। ७-उपास कदशा- जिनको आज श्रावक कहते हैं उनको महावीर युगमें उपासक कहते थे । गृहस्थोंके लिये यह शब्द उस समय आमतौर पर प्रचलित था। इसके स्थानपर 'श्रावक' रब्दका प्रयोग तो बहुत पीछे हुआ है । इसीलिये इस अंगका नाम 'उपासकदशा' है न कि 'श्रावकदशा' । इस अंगमें मुख्य मुख्य व्रती गृहस्थोंक जीवनका वर्णन है । उस वर्णन से गृहस्थों के व्रतोंग भी पता लगजाता है अर्थात् उपमें बारह व्रतोंका वर्णन भी आजाता है ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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