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________________ श्रुतज्ञान के भेद ३१३ पर - समय का संक्षेप में वर्णन है। तथा ३६३ मिथ्यामतों की आलोचना (१) है । प्रश्न- जैनधर्म अगर सब धर्मों का समन्वय करनेवाला धर्म है, तो वह ३६३ मिथ्यामतों का खण्डन कैसे करेगा ? और सूत्रकृतांग में तो अन्य मतों का खण्डन है । उत्तर - जैनधर्म अगर किसी अन्य मत का खण्डन करता है, तो उसके किसी विचार का नहीं, किन्तु उसकी एकान्तताका खण्डन करता है । जो धर्म समन्वय का ही विरोधी हो, उसका खण्डन करना ही पड़ेगा । अथवा जिस द्रव्यक्षेत्र -- कालभाव के लिये जो बात कल्याणकारी न हो, किन्तु कोई उसी द्रव्यक्षेत्रकालभाव के लिये उसका विधान करे तो उसका भी खण्डन करना पड़ता है 1 मतलब यह है कि कोई सम्प्रदाय सदा सर्वत्र और सब के लिये बुरा है यह बात जैनधर्म नहीं कहता, वह किसी न किसी रूप में उनका समन्वय करता है, परन्तु एकान्त दुराग्रहोंका तथा अनुचित अपेक्षाओंका खण्डन भी करता है । दिगम्बर शास्त्रों के अनुसार इस अंग में व्यवहार-धर्मकी क्रियाओंका र्वणन है। दिगम्बर सम्प्रदायमें सूत्रकृतांग उपलब्ध न (१ सूयगडेणं लोए सूरज्जह अलोए मूहज्जह लोआलोए सूइज्जर, जांबा सूइज्जति अजीवा सुइज्जति जीवाजीवा सूहज्जंति ससमऐ सुइज्जइ परसमए सुइज्जइ ससमये परसमये सुइज्जइ; सुअगडेणं असीअस्स किरिया बाइसयरस चउरासीए अकिरिवाईण सचठ्ठीए अण्णाणीयवाईणं बत्तीसाड़ वेणहअवाईणं तिहुं सट्टाणं पासाडय समयाणं वहं किया ससमए ठाविज्जद । नंदीसूत्र ४६ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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