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________________ ३०० ] पाँचवाँ अध्याय मालूम होता है कि उस समय में शास्त्र, सुने जाते थे और स्मरण में रक्खे जाते थे। लिखने पढ़ने का व्यवहार नहीं होता था । जैनियों ने भी शास्त्र का नाम 'रुत' ही रक्खा है, 'लिखित' नहीं रक्खा। खैर, यह तो एक ऐतिहासिक समस्या है; परन्तु इतनी बात तो निश्चित है कि म. महावीर के उपदेशों का कोई लिखित रूप उपलब्ध नहीं है और न उनका लिखितरूप कभी हो सका। उनके शिष्यों ने जो उनके व्याख्यानों का संग्रह किया वह भी उनके शब्दों का ज्योंका त्यों संग्रह नहीं था । उस में भाव म. महावीर के थे और भाषा उनके शिष्यों की थी । इतना ही नहीं, उनके शिष्योंने विषय को खूब बढ़ाया है । मैं द्वितीय अध्याय में कह चुका हूं कि जैन शास्त्रोंके अनुसार म. महावीरने तो त्रिपदी [ उत्पादव्ययङ्ग्रीव्य ) का उपदेश दिया था; उस परसे गणधरोंने द्वादशांगकी रचना की । इससे स्पष्ट मालूम होता है कि म. महावीर का उपदेश स्याद्वाद पर मुख्यरूप में होता था जिसके आधार पर उनके शिष्य लम्बा चौड़ा शास्त्र बना डालते थे, अथवा कुछ न कुछ विस्तार अवश्य करते थे। ___अंगप्रविष्ट साहित्य म. महावीर के शब्दोंमें होने के बदले उनके शिष्यों के शब्दों में होने से उसमें अनेक अतिशयोक्तियों को स्थान मिला । प्रभावना के लिये अनेक कल्पित घटनाओं और कथाओं और वर्णनों को स्थान दिया गया। कवित्व का परिचय देने के लिये भी उसमें अनेक बातों का समावेश हुआ । जबतक म. महावीर जीवित थे तबतक तो पूर्ण द्वादशांगकी रचना हो ही नहीं सकती थी, क्योंकि जीवन के अन्त तक म.
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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