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________________ २९१ कहला सकता । प्राणियों के मनुष्य, पशु, पक्षी, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, बालक, युवा, वृद्ध, इस प्रकार नव भेद करना अनुचित है, क्योंकि इसमें स्त्री पुरुषादि भेद मनुष्यादि भेदों में चले जाते हैं । बहु आदि भेदों में भी यही गड़बड़ी है । बहु, बहुविध, एक, एकविश्व ये चार भेद क्षिप्र भी हो सकते हैं और अक्षम भी हो सकते हैं, इसलिये इनको चार न कह कर आठ कहना चाहिये | इसी प्रकार ये आठ निःस्त भी हो सकते हैं, अनिःसृत भी हो सकते हैं । इसलिये सोलह भेद होंगे। इसी प्रकार इनको उक्त अनुक्त और ष्त्र अध्त्र से भी गुणा करना चाहिये । मतलब यह है कि पहिले तो भेदों की परिभाषा और मान्यता ही ठीक नहीं है । अगर हो भी तो उनका गुणा करके प्रभेद निकालने का ढंग अच्छा नहीं है । सभमतः इम गड़बड़ी का इतिहास इस प्रकार है , मा. मर और आलोचना १ मूल में बहु बहुविध आदि भेद थे ही नहीं । २ किसी आचार्य ने मतिज्ञान को विविधता समझाने के लिये बहु बहुविध आदि को उदाहरण के रूप में लिखा, वर्गीकरण के लिये नहीं । ३ इसके बाद किसी आचार्यने मतिज्ञानके २८ भेदों को बारह से गुणा करके ३३६ भेद कर दिये । उनने यह न सोचा कि सब के साथ इनका गुणा करने से भेदों की संगति होगी या न होगी । ४ पीछे जब उक्त अनुक्त आदि का सब इंद्रियों से सम्बन्ध न बैठा, ध्त्र और धारणा में गड़बड़ी होने लगी तब आचार्यों ने
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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