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________________ २७६ ] पाँचवाँ अध्याय इस बात का ठीक निर्णय कर सके हैं। उनने ईहा और संशय में स्पष्ट भेद बतलाया है (१) और इसीलिये आज कल सर्वार्थसिद्धि के वक्तव्यका अर्थ खींचतानकर वर्तमान मान्यता के अनुरूप किया जाता है । पूज्यपाद ने संशय के समान जो उदाहरण दिया है उसके विषय में कहा जाने लगा है कि वे दो उदाहरण हैं । परन्तु [ १ ] जब अवग्रह अवाय और धारणा में एकएक ही उदाहरण उनने दिया है तब ईहा में ही दो उदाहरण क्यों दिये ? [ २ ] दो उदाहरणों के लिये दो वाक्य बनाना चाहिये परन्तु यहाँ एक ही वाक्य क्यों रहा ? [ ३ ] उनने संशय और ईहा का भेद क्यों न बताया ? [ ४ ] बलाकया भवितव्यम्' इस प्रकार का स्पष्ट निर्देश क्यों न किया ? [५] प्रश्नार्थक 'किं' अव्ययका प्रयोग क्यों किया जो कि यहाँ संशय-सूचक ही है । इन पाँच कारणों से मानना पड़ता है कि सर्वार्थसिद्धिकार उन्हीं आचायों की परम्परा में थे, जो ईहा और संशय को एक मानते थे । परन्तु यह मान्यता ठीक न थी । अन्य आचार्योंने इसका ठीक सुधार किया है । अवाय के विषय में भी जनाचार्यों में पहिला मतभेद तो नाम पर ही है । कोई इसे कोई अपाय कहता है । 'अपाय' का प्राकृतरूप सम्भव है प्राकृत के 'अवाय' रूप को संस्कृत का हो क्योंकि संस्कृत में 'अव' और 'अप' दोनों ही उपसर्ग है । बहुत मतभेद है । अवाय कहता है, 'अवाय' होता है । समझ लिया गया १ नतु ईहाया निर्णय विरोधित्वात्संशयप्रसङ्गः इति तन्न, किं कारणं १ अर्थादानात् अवगृह्यार्थं तद्विशेषलब्ध्यर्थमथादानमीहा । संशयः पुननर्थिविशेषालम्बनः १-१४- ११ संशयपूर्वकत्वाच्च । १-१४- १२ । राजवार्तिक ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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