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________________ २७४ ] पाँचवाँ अध्याय : [३] विशेषावश्यक आदि में जो व्यंजनावग्रह का स्वरूप लिखा है वह ठीक है, परन्तु उपकरण का लक्षण सर्वार्थसिद्धि आदि के अनुसार मानना उचित है। [४] चक्षु और मन को जैनाचार्यों ने जिस प्रकार अप्राप्यकारी माना है उस प्रकार अप्राप्यकारी वे नहीं हैं, किन्तु अन्य इन्द्रियों की अपेका उन में कुछ विषमता अवश्य है। ___ जब हम किसी पदार्थ को छूकर उसके स्पर्श का ज्ञान करते हैं तब उसमें अनेक क्रियाएँ होती हैं । पहिले उसके स्पर्श का प्रभाव हमारी उपकरणेन्द्रिय पर पड़ता है, बाद में निवृत्ति इंद्रिय पर पड़ता है, अभी तक ज्ञान नहीं हुआ है, पीछे भावेन्द्रियके द्वारा निवृत्ति इन्द्रिय का संवेदन होता है, यह दर्शन है। पीछे उपकरण का संवेदन होता है, यह व्यंजनावग्रह है । पीछे पदार्थ के स्पर्श सामान्य का ज्ञान होता है, यह अर्थावग्रह है। बाद में ईहादिक होते हैं। इंद्रियोंके चारों तरफ़ पतला आवरण रहता है। कोई भी बाहिरी पदार्थ पहिले उसीपर प्रभाव डालता है। जब ज्ञानोपयोग इतना कमजोर या क्षणिक होता है कि वह उपकरण के ऊपर पड़े हुए प्रभावके सिवाय अर्थ की कल्पना नहीं करता तब वह व्यंजन ( उपकरण ) को ग्रहण करनेवाला होने से व्यंजनावग्रह कहलाने लगता है। चक्षु इंद्रिय के उपकरण की रचना दूसरे ढंग की है। चक्षु का उपकरण, चक्षु के ऊपर नहीं किन्तु उसके दायें बयें होता
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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