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________________ २६८ ] पाँचवाँ अध्याय विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार अगर अवग्रह का विवेचन माना जाय तो (१) अर्थावग्रह सिर्फ सामान्य को विषय करने वाला सिद्ध होता है । परन्तु किसी भी ज्ञान का विषय सिर्फ सामान्य नहीं माना जाता । [२] अर्थावग्रह के बहु आदि भेद न बन सकेंगे । (३) व्यंजनावग्रह का विषय क्या है यह मालूम नहीं होता या तो वह अर्थावग्रह से अधिक विषयी ( विशेष विषयी) बन जाता है या ज्ञानात्मक ही नहीं रहता। (४) उपकरण को शक्ति रूप मानने से उसका अर्थ के साथ संयोग सिद्ध नहीं होता । नंदीसूत्र टीका- में विशेषावश्यकका ही अनुकरण है, इस लिये उसमें भी उपयुक्त दोष हैं। तत्त्वार्थ भाष्य टीका में भी विशेषावश्यक का अनुकरण है, परन्तु अवग्रह के विषयमें रूप रस आदि सामान्य रूप से विषय माने हैं । अर्थात् अवग्रह में रूप तो मालूम होता है, परन्तु कौन रूप है यह नहीं मालूम होता [१] इससे उपर्युक्त दोषों में से सिर्फ १ और ३ नम्बर के दोष रह जाते हैं। तत्त्वार्थ भाष्य की व्याख्या अगर विशेषावश्यक का अनुकरण करके न की जाय तो उपकरणेन्द्रिय की व्याख्या सर्वार्थसिद्धि १ यदा हि सामन्यन स्पर्शनेन्द्रियेण स्पर्शसामा-यमा हीतमनिर्देश्यादिरूप तत उत्तरं स्पशभेदविचारणा ईहामिधीयते । १-१५ । परन्तु 'अर्थस्य' इस सूत्रकी व्याख्यामें इनने अवग्रह के विषय का नामादिकल्पनारहित कहा है और ईहामें स्पशेके भेद पर विचार नहीं करते। किन्तु यह स्पर्श हे या अस्पर्श ऐसा विचार करत हैं। ये परस्पर विरुद्ध उदाहरण इनकी अनिश्चित मति के सूचक माल्म होते हैं।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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