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________________ २६४ ] पाँचवाँ अध्याय प्रश्न यह होता है कि व्यञ्जन का अर्थ अव्यक्त क्यों हुआ ? व्यञ्जन का अर्थ तो 'प्रकट होना' या 'प्रगट होने का साधन' है । सर्वार्थसिद्धि (१) आदि में भी व्यञ्जन का अर्थ अ५क्त किया है इसलिये वह भी शंकास्पद है । इसके अतिरिक्त यह भी एक प्रश्न है कि वह अव्यक्तता किसकी और कैसी ? विशेषावश्यक के मतानुसार तो अर्थावग्रह में इतना विषय भी नहीं होता कि यह रूप है या शब्द, तब अर्थावग्रह भी अव्यक्त कहलाया । ऐसी हालत में व्यञ्जनावग्रह की अव्यक्तता का क्या रूप होगा ? अथवा क्या केवल सामान्य, किसी प्रत्यक्ष का विषय हो सकता है (२) हम को इतना भी न मालूम हो कि यह कानका विषय है या नाकका, फिर भी ज्ञान हो यह कैसे सम्भव है ? इस प्रकार अर्थावग्रह को सामान्यमात्रग्राही मानने से व्यञ्जनावग्रह का स्वरूप कुछ समझ में नहीं आता और अर्थावग्रह भी ज्ञानरूप नहीं रहता और न इन दोनों के अनेक भेद बन सकते हैं। मतलब यह है कि नन्दीसूत्र और सर्वार्थसिद्धि आदि में जो मिट्टी के घड़े का दृष्टान्त देकर व्यञ्जनावग्रह का स्वरूप कहा है, वह ठीक है परन्तु उसके कारण का उल्लेख ठीक नहीं हुआ। विशेषावश्यक में कारण का उल्लेख कुछ ठीक करके भी स्वरूप बिगड़ गया है। इसके अतिरिक्त कारण के विवेचन में भी शंकाएँ हैं। वास्तव में व्यजनावग्रह की गुत्थी ज्यों ज्यों सुलझाई जाती है, त्यो त्यों उलझती जाती है । इस विषय में एक प्रश्नमाला खड़ी की जाय इसकी अपेक्षा पहिले (१) व्यंजनं अव्यक्तं । सर्वार्थसिद्धि १-१८ । त० राजकार्तिक १-१८ (२) निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्स्वरविषाणवत् ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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