SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मतभेद और आलोचना [२६१ विशेषावश्यक में इस वक्तव्य के खण्डन में कहा गया है कि 'सब विषयी और सब विषय व्यक्ताव्यक्त होते हैं, इसलिये किसी को व्यक्त कहना या किसी को अव्यक्त कहना ठीक नहीं । साथ ही नन्दीसूत्र के अनुसार चक्षु और मन से भी अव्यक्तग्रहण हो सकता है। १] इसलिये व्यञ्जनावग्रह छ: इन्द्रियों से मानना पड़ेगा; परन्तु यह आगम के विरुद्ध है। विशेषावश्यक टीका का यह वक्तव्य अनुभव और युक्ति के विरुद्ध मालूम होता है। सर्वार्थसिद्धि के वक्तव्य का समर्थन नन्दीसूत्र के वक्तव्य से भी होता है। वहाँ पर 'सोते हुए मनुष्य को बारबार जगाने' में व्यजनावग्रह बतलाया है और सर्वार्थसिद्धि की तरह मिट्टी के वर्तन का भी उदाहरण (२) दिया है । नन्दीसूत्र का १ नन्दीसूत्र में व्यंजनावाग्रह के चार भेद ही माने हैं। शब्दके व्यंजनावग्रह का निरूपण करते समय अव्यक्त शब्द ब्रहण को व्यंजनावग्रह कहा है। परन्तु आश्चर्य है कि उनने रूप का भी अव्यक्तग्रहण बतलाया है, जब कि नेत्रोंसे व्यंजनावग्रह नहीं माना जाता ! 'से जहानामए केइ पुरिस अवत्तं रूप पासिज्जा तेणं रूवत्ति उग्गहिए ." आदि । २ पडिबोहगदिटुंतेणं से जहानाम केई पुरिसे कंची पुरिसं मुत्तं पडिवोहिज्जा अमुगाअमुगत्ति, तत्थ चोअगे पन्नवगं ऐवं वयासी-कि एगसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति दुसमयपविठ्ठा पुद्गला गहणमागच्छति जावदससमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति सखिज्जममयपविठ्ठा पुग्गला गहणमागच्छति असंखिञ्जलमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छन्ति । एवं वदतं चोअगं पण्णवए एवं वयासी नोएकगसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छन्ति असंखिज्जसमयपविटा पुग्गला गहणमागल्छन्ति । मल्लगदिलुतेणे से जहानामए केह पुरिसे आकागसीसाओ मल्लगं गहाय तत्थेकं उदगपिंदु पक्खेवेजा से नढे अण्णेवि पक्वेित्ते सेषि
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy