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________________ मतभेद और आलोचना [२५५ शिल्पादि के अभ्यास से जो बुद्धि का विकास होता है है वह कार्मिकी अथवा कर्मजा [१] बुद्धि है। उमर के बढ़ने से अर्थात अनुभव के बढ़ने से जो बुद्धि का विकास होता है, वह पारिणामिकी [२] बुद्धि है। मतभेद और आलोचना मैं कहचुका हूँ कि मतिज्ञान का यह वर्णन शताब्दियों के विकास का फल है । म. महावीर के समय में यह इतना या ऐसा नहीं था । इस विषय में अनेक जैनाचार्यों के अनेक मत हैं तथा बहुत सी मान्यताएँ अनुचित भी मालूम होती हैं । मतिज्ञान के इरुतनिश्चित और अश्रुतनिश्चित भेदों का स्वरूप निश्चित नहीं है । अवग्रह आदि श्रुतनिश्रित के भेद औत्पत्तिकी आदि बुद्धि में भी पाये जाते हैं । बुद्धियों के द्वारा जब ज्ञान होता हैं तब वह अवग्रहादिरूप ही होता है । ऐसी हालत में अवनहादि को बुद्धियों से अलग भेद क्यों मानना चाहिये । नन्दी के टीकाकार ने इस प्रश्न को उठाया है । वे कहते हैं [३] - (२) उवओगदिट्ठसारा कम्मपसंग परिघोलण विसाला । साहुकार फलवई कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी । नन्दी० २६ । (२) अणुमाणहेउ दिलुतेसाहिआ वयविवागपरिणामा । हिआनिस्सअसफलवइ बुद्धी परिणामिआ नाम | नन्दी० २ (३) औत्पत्तिक्यादिकमप्यवाहादिरूपमेव तत्कोनयोर्विशेषः ? उच्यते, अवग्रहादि रूपमेव परं शास्त्रानुसारमन्तरेणोत्पद्यते इति भेदनोपन्यस्तं। नन्दी टीका २६ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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